scriptस्त्रीमन के ये अधखुले पन्ने | Women and thier dreams | Patrika News

स्त्रीमन के ये अधखुले पन्ने

Published: Aug 04, 2017 02:54:00 pm

नन्ही कोपलों के कोमल पर खरोंचें

– डॉ. विमलेश शर्मा
स्त्रीमन के ये पन्ने तो जाने कब से अधखुले ही हैं..सोचती हूँ कि जाने कितनों ने अब तक कोशिश भी की है(?) इन हर्फ़ों में छिपे अहसासातों को जज़्ब करने की…कोशिशें कई हुई हैं पर मायूस मन सोचता है कि, उन कोशिशों पर इस रोशनाई को मिटाने की कोशिशें हीं अधिक हावी हैं ।
सुबह-शाम वॉक के दौरान अक्सर यूँ भी होता है कि कुछ समीप से गुज़रती गाड़ियाँ या तो इतनी तेज़ निकलती हैं कि आप अपने बच जाने को आश्चर्यचकित होकर देखकर ख़ुद को संभालते रहें या फिर इतनी धीरे कि वे तब तक लुढ़कती रहे जब तक आपकी आँखें उन पर बरस ना पड़ें..! ये वाकये किसी ज़माने में ख़ौफ़ पैदा करते थे, अब तो इन शोहदों की जमकर धुनाई करने का मन होता है.. ऐसे मामलों में, मैं अक्सर असहिष्णु हो जाया करती हूँ ।
ये बातें देखने – पढ़ने में बेहद सामान्य लगती होंगी पर ऐसे वाकयों से हमें ना जाने कितनी ही बार गुज़रना होता है.. इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि स्त्री वर्ग को सराहना और सम्मान की समझ नहीं है.. स्त्रियाँ इस भाव को बख़ूबी समझती हैं। पर साथ ही अपनी छठी इन्द्री से वह वो भी समझ जाती है जो आप कह नहीं पाते, या कि शायद आपके अभिव्यक्त करने से भी पहले। हाँ! तब भी जब आप उसकी पीठ पर अपनी लिज़लिज़ी भावनाएँ फेंक रहे होते हैं। चिंता बस इतनी है कि ये सभी बातें मेरी बच्चियों को भी सहनी पङती हैं ।
राजकीय महाविद्यालयों में अधिकांश लड़कियां ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं । डरी, सहमी,कई बार पहली दफ़ा घर से बाहर निकली लड़कियों को ये वाकये और डरा देते हैं। ये लड़कियां अपनी बात हमसे, जिनसे वे बहुत अधिक खुली हुई हैं, कहने में ही झिझकती है तो सोचिए ज़रा ऐसे प्रसंग उन के कोमल मन पर कितनी खरोंचें पैदा करते होंगे। आज ऐसे ही एक वाकये पर बिखरी हुई कोंपल को देखकर मन पसीज गया और साथ में गुस्सा भी आया समाज की परवरिश संबंधी दोमुँही मानसिकता पर.. जो बचपन से मानवीय अस्तित्वों को खांचों में क़ैद करने की आदी है। आवेदन करने भाई आएगा, फीस जमा भाई करवाएगा तो फिर ऐसे मनचलों को सबक सिखाने भी भाई ही तो आएगा आख़िरकार।
कभी – कभी मुझे लगता है कि ग्रामीण परिवेश अधिक खुला है.. पर कभी लगता है सारा जग एकसा। कभी लगता है, कि वहाँ जो जैसा है कम से कम सामने तो है पर क़रीब से कुछ और सच, कई और आँसू नज़र आते हैं। जाने कितने जंजाल हैं, जाने कितने तंग मोड़। हर जगह जाने कितने परतदार चेहरे हैं । कहीं कोई स्त्री संबोधन में ही ‘जी’ के साथ भी खिलवाड़ करते नज़र आता है, तो कहीं कोई उसके व्यक्तित्व से ही । बात बार-बार पैराहन के परचम बनाने की भी की जाती है पर यह परचम अब भी कितनी ही आँखों में कंकड़ की भांति चुभता है।
मैं इन आहत मनों को सहेजने की कोशिश करती हूँ कभी हौंसला देकर, कभी अपने अनुभवों की ओट देकर या कभी राह में एक अकेली चलती शगुफ़्ता को बहेलियों के तेज़ हार्न से बचाकर… अक्सर ख़ुद भी सहम जाती हूँ पर तब इन चेहरों में से ही कोई मुस्कान सामने आकर मेरा हाथ थाम लेती है।
क्या आप ऐसा कर पाते हैं.??

– फेस बुक वाल से साभार

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो