दरअसल, 2014 में देश छोड़कर भागे चोई सियुंग चोल (बदला हुआ नाम) नामक व्यक्ति ने एक पुराने सरकारी नियम को जातीय व्यवस्था में बदलने की कहानी बयां की है। उन्होंने बताया कि 1990 में जब मेरा जन्म हुआ तो मेरे माता-पिता को पता था कि सरकार मुझे भोजन, घर और शिक्षा उपलब्ध कराएगी व बदले में चाहेगी कि वो क्या बोले, सोचे, पढ़े और नौकरी करे।
इससे भी बढ़कर यह निर्धारित करेगी कि क्या चोई आर्मी में भर्ती होने या सत्तारूढ़ कोरियन वर्कर्स पार्टी में काम करने लायक है या नहीं। इसके लिए चोई का स्कूल व कार्यक्षेत्र में प्रदर्शन के साथ सॉन्गबन (एक सामाजिक राजनीतिक वर्गीकरण जो नागरिकों के पूर्वजों का सरकार के प्रति निष्ठा के आधार पर तय किया जाता है) देखा जाना था।
चोई ने दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में मानवाधिकार आयोग से जुड़े एक अधिकारी को बताया कि उनके दादा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के समर्थक थे। इसलिए सॉनगबन में उनके परिवार का स्तर निचला था।
नहीं मिली राजधानी में रहने की इजाजत चोई ने पढ़ाई के जरिए सरकार के प्रति निष्ठावान होने की भरसक कोशिश की ताकि उसके परिवार को राजधानी प्योंगयांग में जगह मिल सके लेकिन चोई के अभिभावकों का आवेदन सॉन्गबन के आधार पर निरस्त कर दिया गया। जिससे आहत चोई ने देश छोड़ दिया। वर्ष 1957 से 1960 के बीच सॉन्गबन अस्तित्व में आया।