यह भारत से फ़्रांस पहुँची एक महिला की कहानी है । भारतवंशी सरस्वती पुत्री शीर्ष कवयित्री डॉ० सरस्वती जोशी का जन्म राजस्थान के उदयपुर में सन् 1937 में एक परंपरावादी ब्राह्मण परिवार में पंडित माँगीलाल सुखवाल के यहां हुआ । उनका बचपन वाराणसी में उदयपुर के महाराणा के मुहल्ले ‘राणा-महल’/ बंगाली-टोला में नाना के यहाँ बीता । छोटी उम्र में ही व्रजराज जोशी से विवाह हो गया व विश्वविद्यालय की आगे की शिक्षा रोक दी गई, किंतु घर में ही अपने श्वसुर, संस्कृत के प्रकांड विद्वान, प्रोफेसर रामप्रताप शास्त्री (ब्यावर) की पुस्तकों के अध्ययन की संभावना होने से वे स्वाध्याय में व्यस्त रहने लगीं । सन् 1965 में इनके पति डॉ० व्रजराज जोशी की पेरिस में ‘इनाल्को’ में नियुक्ति हो गई । बच्चों की पढ़ाई आदि कारणों से तत्काल पेरिस प्रस्थान संभव नहीं था, सो पिता के यहाँ रह कर आगे अध्ययन करने लगीं ।
फ्रेंच भाषा, सभ्यता, का अध्ययन उनके संघर्ष और बुलंदियों तक पहुँचने का सफर बहुत दिलचस्प रहा है । वे सन् 1967 में पेरिस गईं तो भारत लौट कर फ्रेंच भाषा पढ़ाने के उद्देश्य से फ्रेंच भाषा, सभ्यता, ध्वनि-विज्ञान व ‘ऑडिओ-वीज़्यूएल’ आदि का अध्ययन किया । वे सन् 1969 में भारत लौटने ही वाली थीं कि नियति ने कुछ और निर्णय ले लिया और इन्हें प्रोफेसर कैथरीन तोमा ने सोर्बोन विश्वविद्यालय से जुड़े प्रसिद्ध प्राच्य भाषा व सभ्यता संस्थान इनाल्को (जो उस समय ‘लांगज़ो’ के नाम से जाना जाता था) दक्षिण एशिया विभाग में विदेशी भाषा की तरह हिंदी के अध्यापन के लिए ‘रेपेतीतरीस’ नियुक्त करवा दिया । उसके बाद ‘मेत्र दे लांग एतरांजेर’, ‘असिस्तांत द आँसेन्यमाँ सुपीरियर’, और फिर ‘मेत्र दे कोंफेराँस’ । कुछ समय बाद भारतीय सभ्यता के विभाग में भी अध्यापन की संभावना दे दी गई ।
भारत की संस्कृति की सेवा का स्वर्णिम अवसर विदेश में रह कर भी वे भारत से जुड़ाव का रिश्ता निभाती रहीं । दरअसल इनाल्को में लगभग 93 प्राच्य भाषाओं का उनकी सभ्यता व संस्कृति सहित अध्यापन कराया जाता है । इसमें साहित्य, संस्कृति व भाषा-विज्ञान, आदि विषयों के छात्र तो आते ही हैं । फ़्रांस के विदेश-मंत्रालय की सेवाओं में रुचि रखने वाले, ‘फ्रेंच विदेशी सेवा’ की प्रतियोगिता वाले छात्र भी प्रतियोगिता की तैयारी के लिए अध्ययन करते हैं, जो सफल होने पर फ्रांसीसी दूतावासों में नियुक्त होते हैं व राजदूतों के पद तक पहुँचते हैं । इस तरह उन्हें फ़्रांस में रहते हुए ही भारत की भाषा, साहित्य व संस्कृति की सेवा का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हो गया । सन् 1969 में जब वहाँ विदेशी भाषा के रूप में हिंदी के अध्यापन के लिए अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं थी तो अध्यापन की आवश्यकता के अनुरूप सामग्री स्वयं तैयार कर वे उसके आधार पर पढ़ाने लगीं ।
‘हिंदी-फ़्रांसीसी सामान्य शब्दकोश’ व ‘पार्लों-हिन्दी’ में सहयोगी रहीं कुछ समय बाद प्रोफेसर निकोल बलबीर के संपादन में रचित ‘हिदी-फ़्रांसीसी सामान्य शब्दकोश’ व प्रोफेसर आनी मोंतों के साथ हिंदी के अध्यापन के लिए उपयुक्त पुस्तक ‘पार्लों-हिन्दी’ में सहयोगी रहीं । साथ ही लोक-साहित्य, भारतीय सभ्यता-संस्कृति व ‘नृवंशविज्ञान’ के क्षेत्र में भी शोध-कार्य करती रहीं तथा विभिन्न पत्रिकाओं व पुस्तकों में लेख प्रकाशित किए । मसलन ‘आधुनिक अफ्रीका और एशिया पर उच्च अध्ययन केंद्र’; ‘मौखिक या लोक-साहित्य पर अनुसंधान केंद्र’; ‘समकालीन भारतीय उप महाद्वीप पर अनुसंधान और अध्ययन केंद्र’ व इनाल्को द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएँ ‘अद्यतन’ व ‘लांगज़ो के संदेश’; आदि में ।