एक फिलॉसफर की भाषा में कहें तो ‘हम अपने दुश्मन से मिल चुके हैं और वो हम ही हैं’। ध्यान करिए कि कैसे हम पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के अलावा दूसरे मुद्दे पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। हालांकि इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। कल्पना करिए कि अमरीका के फ्लोरिडा में तूफान और समुद्र के जलस्तर बढऩे की सूचना के बाद वहां के लोगों को अपना घर हमेशा के लिए छोडऩा पड़ जाए। ऐसी स्थिति के लिए बीमा के साथ मुआवजे और बेहतर ढंग से मूलभूत संरचना के निर्माण की योजना हो तो लोगों को अधिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा।
इससे लोगों के उस स्थान से पलायन करने और राहत कैंपों में बड़ी रकम खर्च करने से बचा जा सकेगा। अमरीका से बाहर की बात करें तो एक बार सोचें कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बांग्लादेश के लोगों की पलायन की स्थिति हो गई है। इसके बाद क्या होगा? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें विदेशी मदद मिलने लगेगी। साथ ही दूसरे देश शरणार्थी कैंपों की व्यवस्था करने में लग जाएंगे। किसी ने सीरिया और लिबिया के हालात की कल्पना की थी ? यूनाइटेड नेशन्स इंटरगर्वमेंटल पैनल के जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन पर हर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक से पांच फीसदी खर्च करता है। ऐसी स्थिति में विकल्प यही है कि अर्थव्यवस्था को रफ्तार में रखने के साथ जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक स्तर पर रकम खर्च की जाए जिससे इससे निपटने के साथ एक बड़े आर्थिक नुकसान से बचा जा सके।
अच्छा यही होता है कि कम समय में किसी समस्या पर जल्द से जल्द प्रतिक्रिया दी जाए या उसका निवारण ढूंढा जाए या फिर समस्या के साथ रहने के लिए तैयार रहा जाए। सच्चाई ये है कि दुनिया में जटिल समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं और इनका समाधान मुश्किल है। जलवायु परिवर्तन पर दुनियाभर के देश गंभीरता दिखा रहे हैं उसका बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। ये मुद्दे राजनीतिक धुवीकरण और राजनीतिक महत्वकांक्षा के लिए इस्तेमाल होंगे।