Middle East : क्या एक और ‘अरब स्प्रिंग’ की तरफ बढ़ रहा है मध्य-पूर्व तुर्की और रूस की कोशिशों के बावजूद संघर्ष विराम विफल रहने के बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसप तैयप एर्दोगन ने हफ्टार को सबक सिखाने की ठानी है। कुल मिलाकर तुर्की की विदेश नीति अपने पड़ोसियों की समस्या बढ़ा रही है, जिससे वह खुद भी अलग-थलग पड़ गया। मिस्र में सत्ता परिवर्तन लीबिया में तुर्की के हस्तक्षेप को समझने की कड़ी है। 2011 के अरब स्प्रिंग के बाद एर्दोगन ने मिस्र में सत्ता प्राप्ति के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन किया और राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी की सहायता की। 2011 में जब मुर्सी को सेना ने सत्ता से उखाड़ दिया तो एर्दोगन ने इसे आतंकवाद की संज्ञा दी थी। वह लीबिया की घटनाओं को मिस्र से जोडकऱ देख रहा है। तुर्की के लीबिया से घनिष्ठ संबंध हैं, जहां देश के बाहर रहने वाले तुर्कों की 25 फीसदी आबादी रहती है। दोनों देशों के बीच आर्थिक व्यापार भी अच्छा है।
यह कैसे हुआ
दस वर्षों में तुर्की एक मजबूत इस्लामी लोकतंत्र से दमनकारी राज्य में तब्दील हो गया। मध्य-पूर्व में ज्यादातर सरकारें मुस्लिम आबादी वाले दमनकारी सत्तावादी राज्य बन गए। इसका जवाब ये है कि एर्दोगन ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में इस्लाम को बढ़ाने की मंशा रखी। इस अभियान में कतर ने उसका साथ दिया, जिसके चलते सऊदी अरब, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात उसके विरोधी बन गए।