बदल रही है होली की परम्पराएं होली सामाजिक सह-अस्तित्व और भाइचारे का सन्देश लेकर आती है। होली पर कुआं, खेळों की सफाई की जाती थी। इसमें रंग घेाला जाता था। इसके लिए सब मिलकर चंदा देते थे। होली के डांडे के लिए ऊपले, लकडी आदि के लिए टीम बनती थी, जो कई दिन पहले ही घर -घर जाकर होली का चंदा व अन्य चीजें इक_ा करती थी। इधर, नगर परिषद भी खेळों में पानी भरवाती, रंग घुलवाती। लोग डोलची से होली खेलते। हलका जलपान, नमकीन और ठण्डाई का दौर भी लगातार चलता रहता। घर से निकलकर होली खेलती मोहल्लो की टीम टाउन हाल के कुंडे पर पहुंचती। जहां टेसू के फूल का गुलाबी रंग में टीमों की प्रतियोगिता होती। पर अब न तो टाऊन हाल का कुंडा रहा और न ही टेसू के फूल रंग से होली खेलना।
एडवोकेट हरिशंकर गोयल बताते हैं कि अब होली का रंग बदलने लगा है। प्रात:काल से ही जलदाय विभाग पानी गायब कर देता है और 2 बजे दोपहर बाद पानी आता है। फूलों और सूखे रंगों से सूखी होली खेली जाती है। अबीर – गुलाल को मलते रहते हैं। गुलाल घोटा जो कि रंग भरियों की गली में बनता था वो भी अब नहीं बनता है । अलवर की राजशाही होली कभी की दफन हो चुकी है। डोलची तो दिखती नहीं प्लास्टिक की पिचकारी या बोतलें रंग से भरी उल्हास बनाए रखती है। परम्परा निभाने को होली खेलती जाती है।