सृष्टि विस्तार ही विश्व है- ब्रह्म की कामना है। इसी के लिए ब्रह्म ने माया को उत्पन्न किया। पृथ्वी पर आकर दोनों ने पशु सृष्टि-रचना की। पृथ्वी के प्राण ‘पशु’ प्राण कहलाते हैं। अत: मनुष्य योनि भी पशु ही कहलाती है।
सभ्यता समय के साथ बदलती जाती है। सभ्यता ही समय की परिभाषा है। ब्रह्म किसी युग में नहीं बदलता, अत: स्त्री ही सभ्यता है। स्त्री या तो ब्रह्म के लिए जीती है अथवा स्वयं के लिए। युगल सृष्टि में स्वयं के लिए जीना अपूर्णता है, चाहे पुरुष हो या स्त्री। वह तो मानो चने की एक दाल है, पूर्णता तो चना है। दो दालों का एक बन्धन में बंधे रहना ही दापत्य है। वही अंकुरित हो सकता है।
विवाह पूर्व दोनों अकेले रहते हैं। दोनों अपने-अपने स्वरूप को पूर्णता देने में लगे होते हैं। सदा से होता भी आया है। पुरुष अपने पौरुष की वृद्धि करता है, स्त्री अपनी कलाओं की वृद्धि करती है। दोनों के शरीर का नियन्ता चन्द्रमा होता है। पुरुष शरीर को एक-एक करके 16 कलाओं से पुष्ट करता है। उसमें 28 दिन में एक बीजी पिण्ड का निर्माण करता है। पितर संस्था से जोड़ता है। वैसे ही 28 दिन में स्त्री को ऋतुमती करता है। ब्रह्म विवर्त के लिए वेदी का निर्माण करता है। इसी यज्ञकुण्ड में बीजी पिण्ड आहुत होता है। इसी पर आकृति चढ़ाई जाती है। यह आकृति ही सन्तान कहलाती है।
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सृष्टि विस्तार ही विश्व है- ब्रह्म की कामना है। इसी के लिए ब्रह्म ने माया को उत्पन्न किया। पृथ्वी पर आकर दोनों ने पशु सृष्टि-रचना की। पृथ्वी के प्राण ‘पशु’ प्राण कहलाते हैं। अत: मनुष्य योनि भी पशु ही कहलाती है। पृथ्वी पर प्रत्येक प्राणी वरुण के पांच पाशों से बंध रहता है- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- अत: पशु कहलाता है। मूलत: शरीर को पशु कहा है। शरीर का जीवन-वृत्त आहार-निद्रा-भय-मैथुन पर टिका है। केवल मनुष्य में विकसित बुद्धि और स्वतंत्र कर्म करने की क्षमता दी है। अत: वह भोगयोनि तो है ही, साथ में कर्मयोनि भी है। वह स्वतंत्र कर्म करके अपने लिए स्वतंत्र कर्मफल निर्मित कर सकता है।
मनुष्य भी प्रारब्ध से नियंत्रित है। पैदा तो वह ब्रह्म विवर्त के लिए होता है, किन्तु कभी-कभी प्रारब्ध युगल-तत्त्व को छिन्न-भिन्न भी कर देता है। दोनों में से किसी एक के प्राण शरीर छोड़ जाते हैं। पीछे कोई सन्तान भी छूट सकती है। परपरागत समाज में ऐसी घटना दुर्भाग्यपूर्ण मानी जाती है, यदि सन्तान शिशुकाल में ही हो। जो पक्ष जीवित है, उसको ही सन्तान का पालन-पोषण करना है। पुरुष को स्त्रैण भाव में प्रवृत्त होना पड़ता है अथवा स्त्री को पुरुष भाव में। संस्कार ही तय करते हैं कि कौन कितना सफल हो पाता है। आर्थिक स्थिति की अपनी भूमिका है। विधुर-विधवा के जीवन में परिवर्तन तो अवश्यंभावी है।
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शायद इसी दिन के लिए ईश्वर ने हमको अर्द्धनारीश्वर बनाया है कि आवश्यकता पड़ने पर शरीर के विरुद्ध कर्म करके भी जीवन चलाया जा सके। कहना आसान है, कर पाना मुश्किल है। स्त्री चूंकि भीतर पुरुष है, अत: वह अपने बाहरी सौय स्वरूप को त्यागकर पूर्ण पुरुष बनकर भी सहज रूप से जी सकती है। सहनशीलता, त्याग और संघर्ष में हार नहीं मानती। पालन-पोषण उसका प्राकृतिक स्वरूप भी है। सन्तान को बाहर-भीतर जानती भी है। उसके स्वभाव एवं आवश्यकताओं का आकलन भी कर लेती है। संघर्ष के साथ वात्सल्य छूटता नहीं। हां, पुत्र की स्वच्छन्दता से दो-दो हाथ भी करने पड़ जाते हैं।
पुरुष भीतर सोम है, ऋत है, बिखरा हुआ है। प्रकृति से स्वच्छन्द भी है- बंधकर रहना उसके स्वभाव में है ही नहीं। ऋत को बांधा भी नहीं जा सकता। ममता-वात्सल्य की ओर मजबूरी में झुकता है। अपने स्त्रैण भाव को कभी विकसित भी नहीं करता। अत: व्यवहार में आमतौर पर एकपक्षीय-आक्रामक ही होता है। अपने सिर पर सन्तान के पालन-पोषण का बोझ उठा पाना उसके बस की बात नहीं है। ऐसे में सन्तान का पालन-पोषण दादा-दादी अथवा नाना-नानी के भरोसे होता है। यही श्रेष्ठ मार्ग भी है। यहां बच्चे का शारीरिक और मानसिक दोनों तरह का पोषण होता है। पिता के पास शरीर का पोषण, या अतिपोषण होता है। यात्राएं अधिक होती है, ‘आउटडोर’ क्रियाकलाप अधिक होते हैं। इन स्थितियों के लिए मां समृद्ध हो, यह भी आवश्यक है।
एक मां के लिए बच्चे का पालन लगभग गर्भावस्था जैसा ही होता है। बालक के शरीर-विचार दोनों पक्षों का सिंचन करना पड़ता है। आहार यहां भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। खाना बनाते समय उसके मन के भाव बालक के सात्विक स्वभाव और विकास का सन्देश लेकर जाते हैं। मन की भाषा मन समझता है। खाना खाते समय ये मां के भाव बालक के मन में गूंजते हैं। आमतौर पर खाना मां ही पास बैठकर खिलाती है। इससे वातावरण और भी ग्राह्य हो जाता है। वातावरण में मिठास बढ़ जाता है। शिक्षित वर्ग में खाना प्राय: बातें करते खाया जाता है- जिसका मन से सबन्ध ही नहीं जुड़ पाता। मौन-शान्त-प्रसन्नता के भावों की आवश्यकता भी नहीं लगती। अत: खाने में कमियों की चर्चा मन के वातावरण को दूषित-विषाक्त तक बना देती है। तब भोजन रोगवाही हो जाता है। मां का सान्निध्य-भाव ही अन्न को ब्रह्म का स्थान देकर पूजनीय बना सकता है- योगवाही कर्म हो जाता है। वैसे मन का ही निर्माण हो जाता है। शास्त्र कहते हैं कि जो भोजन थाली में आता है, वही आज का प्रसाद है- आपके भाग्य में। ईश्वर का धन्यवाद करें- प्रसन्नता से प्रसाद ग्रहण करें। जो मिलेगा अमृत होगा। कैलोरी, विटामिन, प्रोटीन जैसे शब्द हमारे अन्न के परिजन नहीं हैं। जब तक हम अपनी धरती का अन्न खाते हैं, इनकी आवश्यकता भी नहीं पड़ती। शरीर मन का दर्पण मात्र है। भीतर के रोग झलकते हैं इसमें। इसको अलग से स्वस्थ नहीं रखा जा सकता। यह तथ्य केवल मां के पालन-पोषण से समझा जा सकता है। मां पवित्रता-माधुर्य का पर्याय है। जहां अन्न से नहीं जुड़ती, दोनों भाव ही जीवन से विदा हो जाते हैं।
पुरुष-परवरिश का सबसे नकारात्मक पहलू अन्न ही है। वहां पेट भरना लक्ष्य है। भिन्न-भिन्न स्वाद उसके मन की चंचलता और अपरिपक्वता का प्रमाण है। पुरुष रसोइए के मन को स्त्रैण नहीं बनाया जा सकता। जब सन्तान के लिए पिता का मन स्त्रैण नहीं बन सकता, तब अन्य पुरुष के मन को कैसे रूपान्तरित करेंगे? चाहे घर में, चाहे होटल में। उनके खाने में भौतिकता-यांत्रिकी- समृद्धि तो होगी, अध्यात्म-भक्ति-मन की संतुष्टि नहीं होगी।
-क्रमश: gulabkothari@epatrika.com