भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है। यह 705 से अधिक अनुसूचित जनजातियों का घर है, जो जनगणना 2011 के अनुसार देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8.6 हिस्सा हैं। ये जनजातीय समुदाय देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हैं- मध्य भारत के जंगलों से लेकर पूर्वोत्तर की पहाडिय़ों और राजस्थान के […]
भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है। यह 705 से अधिक अनुसूचित जनजातियों का घर है, जो जनगणना 2011 के अनुसार देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8.6 हिस्सा हैं। ये जनजातीय समुदाय देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हैं- मध्य भारत के जंगलों से लेकर पूर्वोत्तर की पहाडिय़ों और राजस्थान के रेगिस्तानों तक। इनके पास समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, पारंपरिक ज्ञान प्रणाली और विशिष्ट जीवनशैली है।
हाल के वर्षों में, जैसे-जैसे भारत तकनीकी और आर्थिक आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है, जनजातीय शिक्षा का मुद्दा नई तात्कालिकता के साथ सामने आया है। साक्षरता दर में निरंतर अंतर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच, पाठ्यक्रम की सांस्कृतिक प्रासंगिकता और प्रणालीगत समावेशन की कमी जैसे मुद्दों ने इस दिशा में गंभीर विचार-विमर्श को प्रेरित किया है, जिससे यह समझने की कोशिश हो रही है कि कौन-कौनसी चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं और समावेशी शैक्षिक भविष्य की क्या संभावनाएं हो सकती हैं? भारत की जनजातीय आबादी में शैक्षिक पिछड़ापन अत्यंत स्पष्ट है। समानता के संवैधानिक आश्वासनों और लक्षित विकास योजनाओं के बावजूद, जनगणना 2011 के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की साक्षरता दर ५९ प्रतिशत थी, जबकि राष्ट्रीय औसत ७३ प्रतिशत था। इसका मतलब है कि जनजातीय आबादी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा शिक्षा से वंचित है। ये आंकड़े केवल संख्याएं नहीं हैं। यह एक गंभीर सामाजिक और विकासात्मक संकट को दर्शाते हैं, जो प्रणालीगत उपेक्षा, अपर्याप्त ढांचे और सामाजिक-आर्थिक बाधाओं का परिणाम है जो समतामूलक शिक्षा के मार्ग को अवरुद्ध करते हैं।
इनमें से एक प्रमुख चुनौती है जनजातीय समुदायों का भौगोलिक अलगाव। अधिकांश अनुसूचित जनजातियां दूरदराज, पहाड़ी या वन क्षेत्रों में रहती हैं, जहां संचार और परिवहन की सुविधाएं बहुत सीमित हैं। शिक्षा से जुड़ी अधूरी आधारभूत संरचनाएं- जैसे कि उचित कक्षाओं, प्रशिक्षित शिक्षकों, छात्रावासों, पुस्तकालयों और डिजिटल संसाधनों की कमी- इस समस्या को और बढ़ा देती है। बच्चे अक्सर कठिन और दुर्गम रास्तों से कई किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल पहुंचते हैं, जिससे अनुपस्थिति और ड्रॉपआउट दर में वृद्धि होती है। कई क्षेत्रों में एकल शिक्षक वाले विद्यालय और बहुस्तरीय कक्षाएं आम हैं, जो शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। यहां तक कि देशभर में नामांकन बढ़ाने में प्रभावी रही मिड-डे मील योजना भी जनजातीय क्षेत्रों में कार्यान्वयन की चुनौतियों से जूझ रही है, जिसका कारण है निगरानी की कमी।
एक प्रमुख समाधान जनजातीय समुदायों को स्वयं सशक्त बनाने में निहित है। उन्हें केवल लाभार्थी के रूप में देखने के बजाय, उन्हें शैक्षिक कार्यक्रमों के निर्माण और क्रियान्वयन में सक्रिय भागीदार बनाया जाना चाहिए। जनजातीय समुदायों से शिक्षकों की भर्ती, पाठ्यक्रम में उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों का समावेश और स्थानीय पारिस्थितिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों का सम्मान ये सभी शिक्षा को अधिक अर्थपूर्ण और प्रभावी बना सकते हैं। शिक्षा का उद्देश्य आत्मसात कराना ही नहीं, बल्कि सशक्तीकरण भी होना चाहिए। ऐसा सशक्तीकरण, जो गरिमा, आत्मनिर्भरता और अवसरों को बढ़ाए, बिना सांस्कृतिक जड़ों को मिटाए। पंचायती राज संस्थाओं और जनजातीय नेताओं की भूमिका को स्कूलों की निगरानी और शिक्षा बजट की योजना में सुदृढ़ करना भी अत्यंत आवश्यक है। साथ ही, लैंगिक संवेदनशील नीतियां और व्यवहार अत्यावश्यक हैं। जनजातीय समुदायों की लड़कियों को दो अलग-अलग प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ता है- वे न सिर्फ महिलाएं हैं बल्कि जनजातीय भी। उनकी सुरक्षा, आवाजाही, स्वास्थ्य और गरिमा सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रयास जरूरी हैं। शौचालय की सुविधाएं, परिवहन साधन, मासिक धर्म स्वच्छता उत्पाद, जागरूकता अभियानों और नवीन योजनाओं से बालिकाओं के नामांकन और निरंतर उपस्थिति को काफी बढ़ावा मिल सकता है।
भारत में जनजातीय शिक्षा का भविष्य केवल बजट या नीतियों पर नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक समावेशन पर निर्भर करता है। शिक्षा को केवल साक्षरता के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक संरक्षण और आर्थिक उन्नयन के साधन के रूप में देखा जाना चाहिए। एक समावेशी, संदर्भ-आधारित और तकनीक-सक्षम शिक्षा प्रणाली लाखों जनजातीय बच्चों के जीवन को बदल सकती है। उन्हें पारंपरिक सीमाओं से आगे सपने देखने की शक्ति दे सकती है, ताकि वे अपनी पहचान की जड़ों से जुड़े भी रहें।