राम का यह भयंकर रूप, केवल दैहिक बल अथवा शास्त्रों के ज्ञान से निर्मित नहीं होता अपितु इसमें श्रीराम के चारित्रिक गुण भी सम्मिलित हैं। इन्हीं में से एक है अनसूयता, किसी के गुणों के प्रति वितृष्णा न होना। अपने प्रति आग्रह होने के कारण किसी अन्य में श्रेष्ठ गुण देखकर जो अरुचि जागती है, गुणों को धारण करने की योग्यता कम कर देती है। यह एक सामान्य भाव है, जिससे श्रीराम सर्वथा मुक्त हैं। वे शत्रु किसी में भी गुण देखकर मुक्तकंठ से उसकी प्रशस्ति करते हैं।
हनुमान की वाणी, विभीषण की निष्ठा और वानरों के सद्भाव की सराहना प्रभु ने अनेक बार की है। इसी प्रकार राम की क्षमता को परखते हुए उनका क्रोध पर नियन्त्रण करने का असाधारण गुण सामने आता है। सामान्य रूप से क्रोध अवांछित का प्रतिकार करने का मनोविज्ञान है, परन्तु यह अतिरेक में अनर्थ का कारण बन जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने परशुराम-लक्ष्मण के संवाद के क्रम में इसे बहुत सुन्दर ढंग से बताया है- लखन कहेउ हंसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥ हे मुने ! क्रोध पाप की जड़ है, इसके अधीन हुए लोग अनुचित करते हैं और समस्त लोक के प्रतिकूल आचरण करते हैं। राम अद्वितीय बल और तेज से युक्त होते हुए भी क्रोधाभिभूत होकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते। पंचवटी से जानकी का हरण होने के बाद, युद्ध के अनेक प्रसंग अथवा जानकी के भूगर्भ में प्रवेश करने के बाद राम के असह्य तेज का दर्शन होता है किन्तु इन परिस्थितियों में भी वे कोई अकरणीय कार्य नहीं करते। राम का संयम उनको सभी मानवीय दुर्बलताओं से परे ले जाता है ।
यही कारण है कि जब वे धनुष उठाते हैं तो कोई भी उनका सामना करने की क्षमता नहीं रखता। हमारी हार और जीत दोनों के कारण हमारे अपने ही भीतर विद्यमान रहते हैं। राम अपने आपको इस प्रकार अनुशासित करते हैं कि वे मनुष्यता के आदर्श बनकर उभरते हैं। उनके सामने आने वाला या तो शत्रुभाव का त्याग करता है या पराभूत हो जाता है। उनके इसी वैशिष्ट्य को लक्ष्य करते हुये महर्षि वाल्मीकि पूछते हैं – कौन है जिसके रुष्ट होने पर देवता भी सम्मुख आने से डरते हैं। नारद जी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं श्रीराम। वही हैं जिनका चरित्रबल उनके बाहुबल में भी व्यक्त होता है और वे अजेय हो जाते हैं।