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बैंगलोर

कुत्तों से सावधान, हर दिन औसतन १६ लोग बन रहे शिकार

आवारा कुत्तों के आतंक से जूझते बेंगलूरु में हर दिन औसत १६ लोग आवारा कुत्तों के शिकार बनते हैं। बेंगलूरु की शायद ही कोई सडक़ या गली हो जहां लोग आवारा कुत्तों से परेशान नहीं होंगे।

बैंगलोरMar 18, 2019 / 04:38 pm

Santosh kumar Pandey

bangalore news

कुत्तों से सावधान, हर दिन औसतन १६ लोग बन रहे शिकार

बेंगलूरु. आवारा कुत्तों के आतंक से जूझते बेंगलूरु में हर दिन औसत १६ लोग आवारा कुत्तों के शिकार बनते हैं। बेंगलूरु की शायद ही कोई सडक़ या गली हो जहां लोग आवारा कुत्तों से परेशान नहीं होंगे।
बृहद बेंगलूरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले वर्ष २०१८ में शहर में ५९८८ लोगों को आवारा कुत्तों ने काटा।
बीबीएमपी के सार्वजनिक स्वास्थ्य सूचना एवं महामारी प्रकोष्ठ का दावा है कि शहर में आवारा कुत्तों के काटने की संख्या में कमी आई है। वर्ष २०१७ में इसकी संख्या ७५६४ थी, जिसमें वर्ष २०१८ में करीब १५०० की कमी आई और यह ५९८८ पहुंच गई। पशु कल्याण कार्यकर्ताओं का कहना है कि एक वर्ष में करीब ६००० लोग अगर आवारा कुत्तों के शिकार बनते हैं तो इसे संतोषप्रद स्थिति नहीं कही जा सकती है।
इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि शहर में आवारा कुत्तों की संख्या रोकने की दिशा में बीबीएमपी के प्रयास नाकाफी हैं। न सिर्फ रात के समय बल्कि दिन मेंं भी सडक़ों और गलियों में आवारा कुत्तों का झुंड हर जगह दिख जाता है। स्कूली बच्चों से लेकर बड़े और बुजुर्ग हर किसी को आवारा कुत्तों का डर बना रहता है।
कई बाइक चालक आवारा कुत्तों के कारण दुर्घटनाओं का शिकार बनते हैं। बीबीएमपी के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल रोगियों को एंटी-रेबीज वैक्सीन की 8,570 शीशियों की खपत हुई। पशु कल्याण एवं संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि बीबीएमपी का आवारा पशुओं के नियंत्रण के लिए पशु जन्म नियंत्रण (एबीसी) कार्यक्रम अप्रभावी बना हुआ है।
बेंगलूरु को रेबीज-मुक्त बनाने के लिए सभी कुत्तों को एबीसी कार्यक्रम के तहत इलाज कराने की आवश्यकता है, इसमें आवारा कुत्तों की नसबंदी भी शामिल है ताकि वे अधिक पिल्लों को जन्म नहीं दें और रेबीज से बचाव के लिए टीकाकरण हो। हालंाकि एबीसी कार्यक्रम क्रियान्वयन में पारदर्शिता की कमी है, जिस कारण यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि आवारा कुत्तों को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए गए। विशेषकर पिल्लों के जन्म पर नियंत्रण नहीं होने से एबीसी की व्यवहार्यता पर सवाल उठते हैं।
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