दरअसल, दोनों राज्यों के कई जिले सिंचाई के लिए इस नदी पर निर्भर हैं तो बेंगलूरु में पेयजल आपूर्ति भी इसी नदी से होता है। वर्ष 1892 में विवाद तब गहराया जब ब्रिटिश राज के अंतर्गत मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूर रियासत जल बंटवारे को लेकर सहमत नहीं हुए। वर्ष 1910 में दोनों राज्यों ने जल भंडारण के लिए जलाशयों के निर्माण की अवधारणा को आगे बढ़ाया। वर्ष 1924 में पहली बार ब्रिटिश शासकों ने दोनों राज्यों के बीच कृष्णराज सागर जलाशय (केआरएस) के उपयोग के लिए एक समझौता कराया।
मद्रास प्रेसिडेंसी ने केआरएस बांध के निर्माण पर भी आपत्ति जताई थी। लेकिन, जब समझौता हुआ तो तमिलनाडु को भी मेट्टूर बांध निर्माण की मंजूरी मिल गई। वर्ष 1924 के समझौते के तहत तमिलनाडु और पुद्दुचेरी को 75 फीसदी जल उपयोग का अधिकार मिला जबकि कर्नाटक को 23 फीसदी जल के उपयोग का अधिकार मिला। शेष केरल को देने पर सहमति बनी। वहीं कितना क्षेत्र सिंचित होगा इसका भी निर्धारण किया गया।
वर्ष 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद यह समस्या और गहरा गई। दोनों राज्यों में कई बार इसको लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ और हिंसा भी हुई। तमिलनाडु ने 20 वीं सदी के अंत तक नदी पर बांध निर्माण का विरोध भी किया। वर्ष 1974 में कर्नाटक ने तर्क दिया कि वर्ष 1924 में हुए समझौते के 50 साल पूरे हो चुके हैं और अब वह सहमति के शर्तों को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
कर्नाटक का यह भी कहना था कि नदी चूंकि यहां से निकलती हैं इसलिए भी उसका अधिकार अधिक बनता है। कावेरी जल पर तमिलनाडु की निर्भरता को देखते हुए कर्नाटक के विरोध के साथ ही उसकी समस्या बढ़ गई। विशेष रूप से डेल्टा क्षेत्र में सिंचाई का साधन कावेरी जल ही था। वर्ष 196 0 से 198 0 के बीच कर्नाटक ने चार जलाशयों हेमावती, हारंगी, काबिनी और सुवर्णवती का निर्माण करवाया। तब तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया क्योंकि उसे डर था कि इससे उसे पर्याप्त पानी नहीं मिलेगा।
कर्नाटक ने जल बंटवारे को लेकर अंतरराष्ट्रीय नियमों के पालन का हवाला देते हुए कहा कि दोनों राज्य 47-47 फीसदी पानी का उपयोग करें और बाकी केरल और पुद्दुचेरी को दिया जाए। तमिलनाडु इससे खुश नहीं था और वर्ष 1924 के समझौते को लेकर ही अड़ा रहा। वर्ष 198 6 में तंजावुर के किसानों ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई और विवाद के हल के लिए अलग पंचाट गठित करने की मांग की। वर्ष 1990 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को आपसी बातचीत के आधार पर हल निकालने का सुझाव दिया।
लेकिन, जब बातचीत नाकाम हो गई तो शीर्ष अदालत ने केंद्र को पंचाट गठित करने का आदेश दिया। इसके बाद गठित कावेरी जल विवाद पंचाट (सीडब्ल्यूडीटी) ने वर्ष 1980 से 1990 के बीच तमिलनाडु को दिए गए पानी की गणना की और अपने अंतरिम आदेश में कर्नाटक को कहा कि वह 205 टीएमसीफीट पानी छोडऩा सुनिश्चत करे। इसके साथ ही कर्नाटक को कावेरी जल आधारित सिंचाई क्षेत्र का विस्तार रोकने का निर्देश भी दिया।
हालांकि, पंचाट के फैसले के बाद दोनों ही राज्यों में दंगे शुरू हो गए। कर्नाटक ने पंचाट के फैसले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसे रद्द करने की अपील की। हालांकि, शीर्ष अदालत ने राज्य की अपील को ठुकरा दिया और पंचाट के फैसले माना। वर्ष 1993 में तमिलनाडु की तत्तकालिन मुख्यमंत्री जे.
जयललिता एमजीआर मेमोरियल में भूख हड़ताल पर बैठ गईं। उनका कहना था कि पंचाट के अंतरिम आदेश का पालन नहीं किया जा रहा है। कर्नाटक ने तर्क दिया कि चूंकि राज्य सूखे की स्थिति से गुजर रहा है इसलिए पानी नहीं छोड़ा जा सकता।
वर्ष 1998 में कावेरी नदी प्राधिकरण (सीआरए) का गठन किया और पंचाट के अंतरिम आदेश का पालन सुनिश्चत करने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई। सीआरए का अध्यक्ष प्रधानमंत्री और सदस्य चारों राज्यों के मुख्यमंत्री को बनाया गया। अंतत: वर्ष 2007 में कावेरी जल विवाद पंचाट ने अपना अंतिम निर्णय सुनाया जिसमें 740 टीएमसीफीट पानी का बंटवारा किया गया।
इसके तहत तमिलनाडु को 419 टीएमसीफीट, कर्नाटक को 270 टीएमसी फीट, केरल को 30 टीएमसी फीट और पुद्दुचेरी को 7 टीएमसीफीट पानी देने का आदेश पंचाट ने दिया गया। पंचाट ने कहा कि सामान्य साल रहने पर कर्नाटक तमिलनाडु को 205 की जगह 192 टीएमसीफीट पानी सीमावर्ती इलाकों में छोड़े। इसमें से 182 टीएमसीफीट आवंटित शेयर के तहत 10 टीएमसीफीट पानी पर्यावरणीय उद्देश्यों को
ध्यान में रखकर छोडऩा था। वहीं सूखा होने की स्थिति में इसी अनुपात में सभी राज्यों को आपस में जल बंटवारा करने का फार्मूला दिया।
वर्ष 2013 में केंद्र सरकार ने जल बंटवारे को लेकर पंचाट के दिए फैसलेे की अधिसूचना जारी कर दी। उस वक्त तमिलनाडु की तत्तकालिन मुख्यमंत्री जे.जयललिता ने सुप्रीम कोर्ट से कावेरी जल प्रबंधन की मांग की थी लेकिन उसका कोई लाभ नहीं मिला। तब से दोनों राज्यों के बीच सूखे की स्थिति में जल बंटवारे को लेकर विवाद होता रहा है। कर्नाटक ने जब भी सूखे का हवाला देकर पानी छोडऩे में असमर्थता जताई विवाद खड़ा हुआ। सितम्बर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अंतिम फैसला सुरक्षित कर लिया जो शुक्रवार को सुनाया जाएगा।