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बाराबंकी

खुमार बाराबंकवी की यादों का नहीं है कोई पुरसाहाल, मुफलिसी के दौर से गुजर रही हैं उनकी पीढ़ियां

चंद फूलों की तलबगार खुमार बाराबंकवी की कब्र …

बाराबंकीNov 14, 2017 / 11:30 am

नितिन श्रीवास्तव

Khumar Barabankvi family condition Barabanki News in hindi

खुमार बाराबंकवी की यादों का नहीं है कोई पुरसाहाल, मुफलिसी के दौर से गुजर रही हैं उनकी पीढ़ियां

बाराबंकी. हिंदुस्तान की सरजमीं ने कई महान फनकारों को जन्म दिया है। जिन्होंने आज भारत का नाम सारी दुनिया में रोशन कर दिया। मगर यह बहुत ही अफसोस की बात है कि आज उनके जाने के बाद न तो उनकी यादों को जिंदा रखने के लिए किसी ने कुछ किया और न ही उनके परिवार का ही कोई पुरसा हाल है। ऐसी ही एक शख्सियत थे बाराबंकी में जन्मे खुमार बाराबंकवी।
बाराबंकी का नाम किया रोशन

बाराबंकी के कटरा मोहल्ले की तंग गलियों में पैदा होकर खुमार साहब ने शायरी और अदब की दुनिया में बाराबंकी का वह नाम रोशन किया जिसका कोई सानी नहीं है। आज उसी अजाम शायर का परिवार मुफलिसी के दौर से गुजर रहा है। उनके पोते को शायरी पढ़कर और नौकरी करके अपने कुनबे का पेट पालना पड़ रहा है। खुमार साहब का जन्म सन 1919 में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था और उनका असली नाम मोहम्मद हैदर खान था। मगर उनको सही पहचान मिली उनके उपनाम खुमार बाराबंकवी से। आपको बता दें कि कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, नक्श लायलपुरी, बशीर बद्र आदि खुमार साहब के समकालीन और मित्र शायर हैं।
आज भी जिंदा हैं यादें

वैसे तो खुमार साहब ने सैकड़ों गीत, गजल, भक्ति गीत लिखे। जिनके मधुर स्वर आज भी फिजाओं में तैर रहे हैं। मगर चंद गीत ऐसे हैं जिन्हें लोग रहती दुनिया तक याद रखेंगे। इन्हीं गीतों में कुंदन लाल सहगल के लिए लिखे गीत ‘जब दिल ही टूट गया’ भी शामिल है। खुमार साहब ने सन 1955 में बारादरी फिल्म के सभी गीत लिखे। मगर उन्हें असली पहचान मिली इस फिल्म के सदाबहार और अमर गीत ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’ से। सन 1950 में हलचल, सन 1954 में दरवाजा, सन 1946 में शाहजहां, सन 1949 में रूपलेखा, सन 1959 में जरा बचके जैसी फिल्मों के गीतों ने खुमार साहब की यादों को आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में जिंदा रखा है।
नहीं मिली कोई मदद

फैज जो कि खुमार बाराबंकवी के पोते हैं उनका कहना है कि खुमार साहब को रुपए पैसे से कोई भी लालच नहीं था। वहीं एक दर्द फैज की आंखों में आज भी है। बेशक उनके पुरखों से मिली विरासत ने उनको पहचान तो दी। लेकिन बाराबंकी को पहचान देने वाले इस शायर परिवार को न तो किसी भी सरकार से मदद मिली और न कोई अन्य सुविधाएं। आलम यह है कि खुमार बाराबंकवी की यह पीढ़ी किसी तरह मजदूरी कर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने को मजबूर है। फैज के अनुसार उर्दू शायरी की इस तरह से बेकद्री देख बड़ी तकलीफ होती है।
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