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बड़वानी

बस्तों के बोझ तले दबा बचपन, कुछ नहीं किया तो होगी गंभीर बीमारियां

बस्तों के बोझ से विद्याथियों को हो रही हड्डियों संबंधी बीमारियां, स्कूल संचालक बोले जल्द लेंगे निर्णय

बड़वानीJul 05, 2018 / 11:39 am

मनीष अरोड़ा

Bone Diseases To Students With Bones

Bone Diseases To Students With Bones

सेंधवा (अमित शर्मा). न्यूज एडिट : विशाल यादव

नगर सहित जिले के हजारों बच्चे एक ऐसी परेशानी झेलने को मजबूर है। जिसकी शिकायत वे किसी से करने में कतराते है। ये कहना भी गलत नहीं होगा की बच्चों की इस समस्या की ओर ना तो पालकों का ध्यान हैं ना ही स्कूल संचालक बच्चों की दिक्कत के कुछ उपाय कर रहे है। वर्तमान में हजारों छोटे व बड़े विद्यार्थियों का बचपन बस्तों के तले दब चुका है। बैग में भरी किताबों और अन्य सामानों ने बच्चों में कई तरह की हड्डियों और मांसपेशीयों से संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है।
रीढ़ की हड्डी सहित कंधों और कमर में दर्द आम बात
नगर के दर्जनों निजी और शासकीय स्कूलों में पढऩे वाले हजारों विद्यार्थी स्कूल के बेग के बोझ से परेशान है। कई शिक्षाविद बच्चों को इस बोझ से मुक्ति दिलाने की वकालत कर चुके है, लेकिन प्रयासों की कमी के चलते मासूम विद्यार्थी बीमारियों की और बढ़ रहे है। बस्तों के बोझ की दिक्कत सबसे ज्यादा ऐसे बच्चों को झेलनी पड़ रही है, जो शारीरिक रूप से कमजोर है। इस बोझ के कारण बच्चों की रीढ़ की हड्डी पर बहुत दुष्प्रभाव पड़ता है।वे कमर, कंधों के दर्द और थकान आदि से परेशान हो रहे हैं। कई बार विद्यार्थी पालकों से बस्तों के भारीपन का जिक्र करते है, लेकिन पालक इस गंभीर समस्या की ओर ध्यान नहीं देते।
शारीरिक विकास में बन सकता है बाधा
स्कूल बैग का वजन बच्चे के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर बुरा असर डाल रहा है। वर्ष 2014 में की गई एक स्टडी के अनुसार भारत में बच्चों के स्कूल बैग का औसत वजन 8 किलो होता है। एक साल में करीब 200 दिन तक बच्चे स्कूल जाते हैं। स्कूल जाने और वहां से वापस आने के समय जो भार बच्चा अपने कंधों पर उठाता है। यदि उसे आधार मानकर गणना की जाए तो वह सालभर में 3200 किलो का वजन उठा लेता है। ये भार एक छोटे ट्रांसपोर्ट वाहन के बराबर है। अच्छे अंक लाने के दबाव और भारी भरकम बोझ के नीचे बचपन दब रहा है।
स्कूल संचालक बोले अभिभावकों को होना पड़ेगा जागरुक
नगर के कई स्कूल संचालक इस समस्या के लिए अभिभावकों को जिम्मेदार बताते है कि वे बच्चों के टाइम टेबल चेक नहीं करते। इसके अलावा पालक बच्चों को घर से ही पानी की बोतल देते है। इससे बैग का वजन बढ़ जाता है। वहीं अभिभावकों का कहना है कि स्कूली बच्चों के पास कई विषयों की अलग-अलग किताबें और कॉपियां होती हैं। उन्हें हर दिन स्कूल ले जानी पड़ती है। इससे वे परेशान हो जाते हैं। स्कूल संचालक स्कूल की वही किताबें घर ले जाने के लिए कहें जिनका उपयोग किया जाना हो। स्कूल में लॉकर सिस्टम रखने से बच्चे को अपना सामान सुरक्षित रहने का भरोसा होग।वर्तमान में कई स्कूलों में लॉकर सिस्टम नहीं है।
तीन-तीन महीनों बांटा कोर्स
राज्य सरकार ने अभी तक स्कूली बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने के बारे में कई प्रयास किए गए, लेकिन करीब सभी विफल रहे। अब प्रदेश सरकार नई योजना लाई है। इस सत्र से स्कूलों में कोर्स को तीन-तीन महीनों में बांट रहे हैं। जिन विषयों की पढ़ाई मौजूदा तीन महीनों में नहीं होना है। बच्चों को वे किताबें स्कूल लाने की जरुरत नहीं होगी। योजना को जल्द प्रदेश के हजारों स्कूलों में लागू किया जाएगा।
ये बोले स्कूल संचालक
स्कूल प्रतिदिन कौन से विषयों की पढ़ाई होगी। उसी अनुसार किताबें भेजनी चाहिए। स्कूल संचालक भी प्रतिदिन का कोर्स पहले से तय कर पालकों को जागरुक कर सकते है। हमने पूर्व में ये प्रयोग किया था, लेकिन पालकों का पूरा सहयोग नहीं मिला।
-बीएल जैन, समाजसेवी
छोटे बच्चों की कक्षाएं पहली मंजिल से ज्यादा ऊपर नहीं लगनी चाहिए। टाइम टेबल बनाकर और उसे गंभीरता से लागू कर बच्चों को स्कूल बैग के बोझ से मुक्त किया जा सकता है।
-राजेंद्र रघुवंशी, स्कूल संचालक
स्कूल बैग में लंच बॉक्स सहित अनावश्यक सामान नहीं होना चाहिए।पालकों को भी अपनी पूरी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
-राजेंद्र मोतियानी, स्कूल संचालक
आवश्यकता है कि छोटे विद्यार्थियों को स्कूल में बगैर बस्तों के बुलाकर उन्हें प्रेक्टीकल पढ़ाई कराई जाए। इससे उनका बौद्धिक विकास भी हो जाए और बस्तों के बोझ से मुक्ति मिले।
-दिलीप कानूनगो, अध्यक्ष शिक्षा प्रसारक समिति
बच्चों को उनके शरीर के वजन के हिसाब से ही वजन उठाना चाहिए। यदि वे अधिक बोझ ज्यादा समय तक उठाते हैं तो उनकी हड्डियों के विकास और मजबूती पर विपरित असर पड़ सकता हैं।उन्हें बचपन में ही हड्डी और मांसपेशीयों संबधी बीमारियां होने की आशंका रहती है।
-अनूप सक्सेना, हड्डी रोग विशेषज्ञ सेंधवा

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