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भोपाल

हरिशयनी एकादशी 23 जुलाई को, इस दिन होती है हर मनोकामना पूरी!

देवशयनी एकादशी से जुड़ी हर वो बात जो आप जानना चाहते हैं…

भोपालJul 22, 2018 / 09:34 am

दीपेश तिवारी

harishayani ekadashi

हरिशयनी एकादशी 23 जुलाई को, इस दिन होती है हर मनोकामना पूरी!

भोपाल। सनातन धर्म में एकादशियों का खास महत्व है। आमतौर पर लोग एकादशी को महज एक व्रत के रूप में ही देखते हैं, लेकिन किसी भी एकादशी का महत्व इससे अधिक होता है।

हरिशयनी एकादशी को देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। यह एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आती है। इसे ‘पद्मनाभा’ एकादशी भी कहा जाता है। भारत में वर्षा ऋतु के आरंभ होने के आसपास ही इस एकादशी की तिथि आती है। इस वर्ष यह एकादशी आने वाली 23 जुलाई, 2018 को है। अन्य एकादशियों की तुलना में देवशयनी एकादशी का महत्व कुछ अधिक है।

हिन्दूपंचांग के अनुसार प्रत्येक माह की 11वीं चंद्रमा तिथि को एकादशी का दिन माना जाता है और हर एक माह में दो एकादशियां होती हैं। यह एकादशी सभी के लिए काफी शुभ मानी जाती है।

ऐसी मान्यता है कि एकादशी का पूरा दिन ही शुभ मुहूर्त से बना होता है। अत: इस दिन किसी भी मंगल कार्य को करना शुभ माना गया है।
लेकिन हरिशयनी एकादशी यानि देवशयनी एकादशी इन सभी एकादशियों से कुछ ज्यादा ही खास मानी जाती है। यह एक ऐसी एकादशी है जिसके आने के बाद हिन्दू धर्म में सभी मंगल कार्यों पर रोक लग जाती है।
हरिशयनी का महत्व भगवान विष्णु से जुड़ा है। इस शब्द में ‘हरि’ का संबंध विष्णुजी से है तथा ‘शयन’ का अर्थ है विश्राम करना या फिर निद्रा में जाना। एक मान्यतानुसार यह ऐसा दिन है जब भगवान विष्णु चार माह के लिए शयन अवस्था में चले जाते हैं।

इन चार महीनों में भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं इसलिए इस दौरान सनातन धर्मावलंबियों में विवाह व अन्य मंगल कार्यों को रोक दिया जाता है। विष्णुजी के निंद्रा काल में जाने के कारण किसी भी शुभ कार्य को महत्व नहीं मिल पाता इसलिए लोग मंगल कार्यों के लिए चार माह के लिए रोक लगाना ही सही मानते हैं।

इस दौरान मनुष्य किसी भी प्रकार का मंगल कार्य तो नहीं कर सकता, लेकिन फिर भी इस एकादशी से जुड़ी कई मान्यताएं इसे एक उत्सव का दर्जा देती हैं। पुराणों में उल्लिखित देवशयनी एकादशी की कथा ही इसे यादगार बनाती है।

इस महीने देवशयनी एकादशी आषाढ़ शुक्ल एकादशी यानि 23 जुलाई 2018 को है। देवशयनी एकादशी के दिन से देवउठनी एकादशी तक भगवान श्रीहरि चार महीने शयन के लिए चले जाते हैं। इसलिए इस चार महीने को चातुर्मास कहा जाता है।

हरिशयनी/देवशयनी एकादशी पूजा विधि devshayani Ekadashi puja vidhi…
पंडित सुनील शर्मा के अनुसार देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है। दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगले दिन प्रात: काल उठकर दैनिक कार्यों से निवृत होकर व्रत का संकल्प करना चाहिए।

भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए। भगवान को समस्त पूजन सामग्री, फल, फूल, मेवे तथा मिठाई अर्पित करने के बाद विष्णु मंत्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए हैं, उनका कठोरता से पालन करना चाहिए।

यहां रहेंगे भगवान विष्णु!
वहीं यह भी कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार में दैत्यराज बलि से तीन पग भूमि दान के रूप में मांगी थी। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से प्रसन्न होकर भगवान ने बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया और कहा वर मांगो।
बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में निवास करें। तब भगवान ने बलि की भक्ति को देखते हुए चार मास तक उसके महल में रहने का वरदान दिया। मान्यता है कि भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवप्रबोधिनी एकादशी तक पाताल में बलि के महल में निवास करते हैं।

देवशयनी एकादशी कथा Devshayani ekadashi katha…
मान्यता है कि एक बार नारद मुनि ने भगवान ब्रह्मा से हरिशयनी/देवशयनी एकादशी का महत्व जानने के लिए विनती की तो ब्रह्मा जी ने बताया कि यह खास प्रकार की एकादशी सतयुग के राजा चक्रवर्ती सम्राट के राज्य से जुड़ी है।

उस समय राजा के राज्य में प्रजा बहुत सुख और आनन्द से रहती थी, लेकिन एक बार राज्य पर कुदरत का कहर उमड़ पड़ा। तकरीबन तीन वर्ष तक राज्य में वर्षा की एक बूंद ना पड़ी, सके परिणामस्वरूप चारों ओर भयंकर अकाल पड़ गया। व्याकुल प्रजा अपनी जान की दुहाई करती हुई राजा के महल में पहुंची और राजा से मदद की गुहार करने लगी।

यूं तो राजा भी पहले से ही अकाल पड़ने की इस चिंता में डूबे हुए थे, लेकिन प्रजा के आने पर वे और अधिक परेशान हो गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या करें। कुदरत की इस मार के सामने वे कर भी क्या सकते थे।

उन्होंने वर्षा कराने के लिए ना जाने कितने धर्म पक्ष के यज्ञ किए, विभिन्न हवन पिण्डदान किए और स्वयं ही व्रत भी रखे, लेकिन कोई परिणाम ना मिला। प्रजा की वे मदद करें भी तो कैसे समझ नहीं आ रहा था, लेकिन तभी उन्होंने फैसला किया कि वे पास के जंगल में जाएंगे और वहीं अपनी समस्या का हल खोजेंगे।

इसके बाद राजा अपनी सेना की एक छोटी सी टुकड़ी को लेकर जंगल की ओर चल दिए। जंगल में विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे।

यहां उन्हें ऐसा आभास हुआ कि हो न हो उनके दुखों का निवारण इसी आश्रम से होगा और यह सोचते हुए राजा घोड़े से उतरकर आश्रम में दाखिल हुए और ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर उनके आने का कारण पूछा तो राजा बोले, “हे महात्मन! सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं।

मैं इसका कारण नहीं जानता। आख़िर क्यों ऐसा हो रहा है, कृपया आप इसका समाधान कर मेरा संशय दूर कीजिए। राजा की विनती सुनकर ऋषि बोले, “हे राजन! आप चिंतित मत होइए। क्या आप नहीं जानते कि यह सतयुग सब युगों में क्षेष्ठ और उत्तम माना गया है? यह एक ऐसा युग है जिसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भारी दण्ड मिलता है, और शायद आप इस बात से अनजान हैं कि एक ऐसा ही पाप आपके राज्य में ही हो रहा है।”

राजा कुछ समझ ना पाए और ऋषि की बात को विस्तार से जानने की विनती करने लगे। ऋषि आगे बोले, सतयुग में लोग ब्रह्माजी की उपासना करते हैं। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है।

इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को तप करने का अधिकार नहीं है, लेकिन आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। अब राजा को वर्षा ना होने का कारण समझ में आने लगा। ऋषि बताने लगे कि यदि उस शूद्र की मृत्यु हो जाए तो राज्य में पड़ा अकाल हरियाली में बदल सकता है लेकिन राजा के राज्य में किसी को भी मृत्यु दंड देने का प्रावधान नहीं था।

राजा व्याकुल होकर ऋषि से बोले के वे उस शूद्र को नहीं मार सकते, कृपया वो कोई और उपाय बताएं।
राजा की चिंता को समझते हुए ऋषि बोले, राजन्, यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो आपको एक व्रत रखना होगा। आप आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे सारा जगत पद्मा एकादशी या हरिशयनी एकादशी के नाम से भी जानता है, उसका विधिपूर्वक व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।

ऋषि से मिला उपाय जानकर राजा वापस अपनी सेना के साथ राज्य में लौटे और सलाह के अनुसार पूरे विधि-विधान से चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
इस कथा को ही आधार मानते हुए हिन्दू धर्म में भक्त इस एकादशी का व्रत रखते हैं। परिवार में खुशी, धन का लाभ हो तथा किसी भी प्रकार का दुख उन्हें छू ना सके इस भावना से लोग हरिशयनी एकादशी का व्रत रखते हैं।
वैसे तो हिन्दू धर्म में सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु इस खास एकादशी के लिए भगवान का शयन प्रारम्भ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस एकादशी पर कोई भूल-चूक ना हो इस बात का खास ख्याल रखा जाता है।

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