मान्यताओं के अनुसार पैगंबर हजरत मोहम्मद का जन्म इस्लाम कैलेंडर के अनुसार रबि-उल-अव्वल माह के 12वें दिन 570 ई. को मक्का में हुई था। वहीं कुरान के अनुसार ईद-ए-मिलाद को मौलिद मावलिद के नाम से भी जाना जाता है यानि पैगंबर के जन्म का दिन। इस दिन रात भर तक सभाएं की जाती हैं और उनकी शिक्षा को समझा जाता है। माना जाता है कि पैगंबर की शिक्षा को सुना जाए तो वो जन्नत के द्वार खोल देती हैं।
वर्ष 570. में हज़रत मुहम्मद साहब की पैदाइश अरब के एक रेगिस्तान शहर में हुई। उस समय वहां तीन प्रमुख शहर थे, य्थ्रीब, जिसे आज मदीना के नाम से जाना जाता है, वे वहां का एक प्रमुख नखलिस्तान था। दूसरा था ताइफ़ जो अपने अंगूरों के लिए प्रसिद्ध पर्वतों में एक शांत शरण था और तीसरा शहर मक्का जो इन दोनों शहरों के विपरीत एक बंजर घाटी में था, हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म स्थान भी मक्का था।
हज़रत मुहम्मद साहब का नाम उनके दादा अब्दुल मुत्तलिब ने रखा था। जिसका अर्थ है “प्रशंसित”। मुहम्मद नाम अरब में नया था। मक्का के लोगों ने जब अब्दुल मुत्तलिब से नाम रखने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा- ताकि सारे संसार में मेरे बेटे की प्रशंसा की जाए।
जैसे-जैसे हज़रत मुहम्मद साहब बड़े हुए उनकी ईमानदारी, नैतिकता और सौम्य प्रकृति ने उनको और प्रतिष्ठित कर दिया। वे हमेशा झगड़ों से अलग रहते और कभी भी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। अपने इन सिद्धांतों पर वे इतना दृढ़ थे कि मक्का के लोग उन्हें ‘अल-अमीन’ नाम से पुकारने लगे थे, जिसका अर्थ होता है ‘एक भरोसेमंद व्यक्ति’। उनके प्रसिद्ध चचेरे भाई अली ने एक बार कहा था “जो लोग उनके पास आते, उनसे और क़रीब हो जाते ।”
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में एक लेख है जिसका शीर्षक है, “मनुष्य और उनके देवता”, इस आलेख के लेखक एक ईसाई ओरिएंटलिस्ट हैं, जो लिखते हैं कि कैसे हज़रत मुहम्मद साहब ने मात्र 23 वर्षों में ऐसा प्रभाव डाला जिसने इतिहास का रूख हमेशा के लिए बदल दिया।
एक बार एक बेदोइन (मक़ामी क़बायली) मस्जिद-ए-नबावि में आया, उसने मस्जिद के अहाते में पेशाब कर दिया। वहां उस समय हज़रत मुहम्मद साहब और उनके साथी बैठे हुए थे। उनके साथियों ने जैसे ही यह देखा वे उस व्यक्ति पर बिगड़ गए। अपने साथियों को हज़रत मुहम्मद साहब ने रोका और कहा कि उस व्यक्ति पर ना बिगड़ें उसे छोड़ दें।”