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स्मृति शेष : करोगे याद तो सागर सरहदी की हर बात याद आएगी

विभाजन के बाद पाकिस्तान के सरहदी इलाके के गंगा सागर तलवार मुम्बई पहुंचकर सागर सरहदी हो गए। तबीयत से शायर और फितरत से फकीर थे। जाने कैसी-कैसी छटपटाहट का जखीरा अपने सीने में छिपाए रहते थे। उन्होने फिल्मों में मोहब्बत को नए रंग दिए। ऐसे रंग, जिनमें फूल की कोमलता और कांटों की चुभन एक साथ महसूस होती है।

Mar 24, 2021 / 10:25 pm

पवन राणा

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-दिनेश ठाकुर
बतौर निर्देशक सागर सरहदी की पहली फिल्म ‘बाजार’ के खासे मकबूल गीत का अंतरा है- ‘गली के मोड़ पे सूना-सा कोई दरवाजा/ तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा/ निगाह दूर तलक जाके लौट आएगी/ करोगे याद तो हर बात याद आएगी/ गुजरते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी।’ सागर सरहदी की दुनिया से विदाई ने मुम्बई के सिऑन इलाके के एक मकान को सूना कर दिया है। यह इलाका या तो अपने प्राचीन किले के लिए पहचाना जाता है या इस मकान के लिए। इसी मकान के एक कमरे में सागर सरहदी रहते थे। कमरे के आधे से ज्यादा हिस्से पर किताबों का कब्जा था। बाकी हिस्सा इमाम आजम के शेर की तर्जुमानी करता था- ‘मौसम सूखा-सूखा-सा है, लेकिन यह क्या बात हुई/ केवल उसके कमरे में ही रात गए बरसात हुई।’ भावनाओं की इसी बरसात में सागर सरहदी ने ‘कभी-कभी’, ‘अनुभव’, ‘दूसरा आदमी’, ‘सिलसिला’, ‘चांदनी’, ‘लोरी’, ‘फासले’, ‘दीवाना’, ‘कहो न प्यार है’ सरीखी फिल्मों की पटकथा और संवादों की रचना की। फिल्मों में मोहब्बत को नए रंग दिए। ऐसे रंग, जिनमें फूल की कोमलता और कांटों की चुभन एक साथ महसूस होती है।

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नायक हैं तो क्या रोएं नहीं
विभाजन के बाद पाकिस्तान के सरहदी इलाके के गंगा सागर तलवार मुम्बई पहुंचकर सागर सरहदी हो गए। तबीयत से शायर और फितरत से फकीर थे। जाने कैसी-कैसी छटपटाहट का जखीरा अपने सीने में छिपाए रहते थे। एक बार उनसे मुलाकात हुई तो इस छटपटाहट की वजह थोड़ी-बहुत समझ आई। बोले- ‘आज का बौद्धिक तबका ‘फीलिंग’ (जज्बात) के खिलाफ खड़ा नजर आता है। वह फिल्मों, नाटकों, कहानियों में जज्बात को सतही और बेमानी मानता है। इसी तबके के कुछ दोस्तों को मेरी ‘बाजार’ को लेकर एतराज था कि इसके दोनों हीरो (नसीरुद्दीन शाह, फारूख शेख) रोते क्यों हैं। यह कमजोरी की निशानी है। नायकों को रोना नहीं चाहिए। मैं इन दोस्तों को कैसे समझाऊं कि जब तकलीफ बर्दाश्त की हदें पार करती है, तो जिनकी संवेदनाएं जिंदा हैं, बच्चों की तरह रो पड़ेगे। जो जड़ हैं, वही रोना टाल सकते हैं।’

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छायादार पड़ाव साबित हुई ‘बाजार’
स्मिता पाटिल की लाजवाब अदाकारी वाली ‘बाजार’ सागर सरहदी के लिए छायादार पड़ाव साबित हुई। उन्हें बिमल राय और महबूब खान की शैली का फिल्मकार कहा गया। इस फिल्म में उनकी संवेदनशीलता चरम पर है। खय्याम की जादुई धुनें सोने में सुहागा साबित हुईं। ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’, ‘देख लो आज हमको जी भरके’ और ‘दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया’ की तासीर आज भी बरकरार है। लेकिन बेरहम फिल्म-बाजार ने न सागर सरहदी को ‘बाजार’ का दूसरा भाग बनाने दिया, न उनकी ‘तेरे शहर में’ और ‘चौसर’ को सिनेमाघरों में पहुंचने दिया।

अटक गईं ‘तेरे शहर में’ और ‘चौसर’
‘बाजार’ की कामयाबी के बाद सागर सरहदी ने स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, दीप्ति नवल, सोनू वालिया और मार्क जुबेर को लेकर ‘तेरे शहर में’ बनाई। ‘बाजार’ में अगर हैदराबाद की लड़कियों की सौदेबाजी करने वाले अमानुषिक बाजार का भंडाफोड़ किया गया, तो ‘तेरे शहर में’ की थीम देश की न्याय प्रणाली पर आधारित है। सागर सरहदी इस फिल्म में दिखाना चाहते थे कि वंचित तबके के लिए इंसाफ हासिल करना कितना मुश्किल है।’बाजार’ की तरह इसका संगीत भी खय्याम ने रचा। संगीत तो 1985 में जारी हुआ था, फिल्म अब तक अटकी हुई है। यही हाल ‘चौसर’ का है, जो नवाजुद्दीन सिद्दीकी की पहली फिल्म है। इसकी एक गजल सागर सरहदी की छटपटाहट की सटीक अभिव्यक्ति है- ‘हर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा/ मैं ही कश्ती हूं, मुझी में है समंदर मेरा/ एक-से हो गए मौसम हो कि चेहरे सारे/ मेरी आंखों से कहीं खो गया मंजर मेरा।’

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