-दिनेश ठाकुर
ऑस्कर ( Oscar Awards ) की दौड़ से 'जल्लीकट्टू' के बाहर होने के बाद तसल्ली और हौसला बरकरार रखने की जरूरत है। जैसा कि फैज ने फरमाया है- 'दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है/ लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।' जहां वश न चले, वहां क्या किया जा सकता है। उस्ताद दाग कहते हैं- 'दिल गया, तुमने लिया, हम क्या करें/ जाने वाली चीज का गम क्या करें।' ऑस्कर के सर्वश्रेष्ठ विदेशी फीचर फिल्म वर्ग में भारत के लिए संभावनाएं 'जल्लीकट्टू' के बाहर होने से खत्म हो गई हैं। शॉर्ट फिल्म के वर्ग में फिलहाल उम्मीदें बरकरार हैं। पहले राउंड में इस वर्ग के लिए चुनी गईं 10 फिल्मों में भारत की 'बिट्टू' ( Bittu Short Film ) शामिल है। क्या पता, यह छोटी गौरैया बड़ा धमाका कर दे।
दो बच्चियों की दोस्ती के मार्मिक पन्ने
निर्देशक करिश्मा देव दुबे की 'बिट्टू' सिर्फ 17 मिनट की फिल्म है। इतनी कम मियाद में किसी बड़े हादसे को संवेदनाओं के धरातल पर टटोलना अपने आप में चुनौती है। बिहार में छपरा के एक गांव में 2013 में दिल दहलाने वाला हादसा हुआ था। वहां के स्कूल में मिड-डे मील (दोपहर का भोजन) ने 22 बच्चों को मौत की नींद सुला दिया। 'बिट्टू' इस हादसे की पृष्ठभूमि में गांव की दो बच्चियों बिट्टू और चांद की गहरी दोस्ती के पन्ने पलटती है। दोनों एक ही कक्षा में हैं। मुफलिसी से बेखबर गांव के कच्चे रास्तों पर उनकी मौज-मस्ती, अठखेलियां चलती रहती हैं। चांद के मुकाबले बिट्टू दबंग है। जिद्दी और अक्खड़ भी। गुस्सा अपनी चोटी में बांधकर रखती है। जरा-सी बात पर गुस्सा चोटी से बाहर आ जाता है। गुस्से के चढऩे-उतरने के बीच चांद के साथ उसका 'कट्टी' और 'पक्की' का खेल चलता रहता है। एक दिन गुस्से में वह चांद पर सियाही उंडेल देती है। इस हरकत पर उसे स्कूल में मिड-डे मील नहीं देने की सजा मिलती है। गाल फुलाकर वह स्कूल से घूमने-फिरने चल देती है। लौटती है तो पता चलता है कि मिड-डे मील खाकर कई बच्चे हमेशा के लिए सो चुके हैं। इनमें चांद भी शामिल है।
जो अकथित छोड़ा, महसूस हुआ
इस व्यापक घटनाक्रम पर भावनाओं का छोटा-सा कैप्सूल बनाने में करिश्मा देव दुबे काफी हद तक कामयाब रही हैं। 'बिट्टू' देखकर यह उम्मीद भी जागती है कि अगर वह सार्थक और कलात्मक फीचर फिल्म बनाएंगी, तो उनका हुनर मुकम्मल तरीके से उभरेगा। चूंकि 'बिट्टू' शॉर्ट फिल्म है, इसलिए उन्हें इल्म था कि पर्दे पर कितना दिखाना है और कितना छिपा लेना है। उन्होंने जो अकथित छोड़ा है, उसे समझदार दर्शक फिल्म खत्म होने के बाद भी देर तक महसूस करते हैं।
सहजता सबसे बड़ी खूबी
'बिट्टू' की सबसे बड़ी खूबी इसकी सहजता है। न इसके किरदार बनावटी लगते हैं, न ही गांव और वहां की स्कूल का माहौल। स्कूल का एक शिक्षक मुफलिस बच्चों से हमदर्दी रखता है। घर से मुंह धोकर नहीं आने वाले बच्चों को वह स्कूल के नल पर साफ-सुथरा कर देता है। स्कूल की प्राचार्य बच्चों को 'अच्छा बच्चा' बनने का पाठ पढ़ाती है, लेकिन खुद अच्छी प्राचार्य नहीं बन पाती। वह दूसरे कामों में इतनी उलझी रहती है कि मिड-डे मील के बंदोबस्त पर ध्यान नहीं दे पाती। खाना पकाने वाली महिला कर्मचारी तेल से बदबू आने की शिकायत करती है। प्राचार्य दूसरा बंदोबस्त करने के बजाय 'इसी में पका दो' की हिदायत देकर चल देती है। इस तरह की लापरवाही देश के कुछ हिस्सों में मिड-डे मील योजना पर सवालिया निशान लगाती रही है।