ऐसे हुई ईपीएस की शुरूआत
ईपीएस यानी इंप्लाय पेंशन स्कीम की शुरुआत 1995 में हुई थी। कंपनी अपने कर्मचारी की सैलरी का अधिकतम सालाना 6,500 का 8.33 फीसदी ही इंप्लाॅय पेंशन स्कीम के लिए जमा कर सकता था। उसके करीब एक साल के बाद मार्च 1996 में इस नियम में बदलाव हुआ। बदलाव होने के बाद अगर कर्मचारी फुल सैलरी के हिसाब से स्कीम में योगदान देना चाहे और कंपनी भी राजी हो तो उसे पेंशन भी उसी हिसाब से मिलनी चाहिए।
फिर 18 साल के बाद हुआ नियम में बदलाव
ईपीएस के नियम में करीब 18 के साल के फिर से बदलाव किया गया। सितंबर 2014 में अधिकतम 15 हजार रुपए का 8.33 फीसदी योगदान को मंजूरी मिली। वैसे साथ में यह नियम भी रखा गया कि अगर कोई कर्मचारी फुल सैलरी पर पेंशन लेना चाहे तो उसकी पेंशन वाली सैलरी पिछली पांच साल की सैलरी के हिसाब से तय होगी। इससे पहले तक यह पिछले साल की औसत आय सैलरी पर तय हो रहा था। इससे कई कर्मचारियों की सैलरी काफी कम हो गई।
कोर्ट में पहुंचा मामला
सैलरी कम होने के बाद इस तरह के मामले कोर्ट में पहुंचे। केरल हाईकोर्ट ने 1 सितंबर 2014 को हुए बदलाव को रद्द करते हुए पुराना सिस्टम दोबारा चालू कर दिया। जिसके बाद पेंशन वाली सैलरी पिछले साल की औसत सैलरी पर तय होने लगी। 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने ईपीएफओ से कहा कि इसका फायदा उन लोगों को भी दिया जाए जो पहले से फुल सैलरी के बेस पर पेंशन स्कीम में योगदान दे रहे थे। इस फैसले से कई कर्मचारियों को फायदा हुआ। खास बात ये है कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले प्रवीण कोहली की पेंशन 2,372 रुपए से 30,592 रुपये हो गई। जिसके बाद उन्होंने बाकी कर्मचारियों में भी इसकी जागरुकता फैलाई
ईपीएफओ ने की आनाकानी
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ईपीएफओ ने आनाकानी शुरू कर दी। संस्था ने उन कंपनियों इस फायदा देने से इंकार कर दिया तो ट्रस्ट द्वारा संचालित होते हैं। ताज्जुब की बात तो ये है कि देश की नवरत्न कंपनियों में शामिल ओएनजीसी, इंडियन ऑयल कंपनियों का अकाउंट भी ट्रस्ट ही मेंटेन करता था। तब तक देश के कई राज्यों के हाईकोर्ट में केसों की बाढ़ आ गई। जिसमें सबने इस स्कीम में शामिल करने के लिए कहा। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उम्मीद लगाई जा रही है कि यह मामला अब पूरी तरह सुलझ गया है।