श्रीमंत वही है जो विपन्न को संपन्न बनाए
वृत्ति का परिष्कार ही धर्म साधना का मुख्य उद्देश्य है। वृत्ति और भावना की निर्मलता ही साधना का आधार है । इंसान की भावना ही भव का निर्माण करती है इसलिए भावना को कलुषित और दूषित बनाने वाले निमित्त, व्यक्तिओं और वातावरण से परहेज करना ही समझदारी की निशानी है। कर्म बंधन भी व्यक्ति की वृत्ति पर निर्भर करता है।
श्रीमंत वही है जो विपन्न को संपन्न बनाए
चेन्नई. गोपालपुरम स्थित छाजेड़ भवन में विराजित कपिल मुनि ने पर्यूषण के चौथे दिन कहा जीवन तो एक समझौते का नाम है इसलिए सामंजस्य करके ही जीवन यात्रा तय करने में भलाई है। सबके प्रति प्रेम और मैत्री का व्यवहार और परस्पर सहयोग की भावना से जीना ही सफल और सार्थक जीवन की निशानी है। अपनी अर्जित सम्पदा का सम्यक उपयोग तभी होगा जब विपन्न व्यक्ति को संपन्न बनाने की दिशा में कुछ उपक्रम किया जाएगा। स्वधर्मी वात्सल्य सम्यग् दर्शन का आचार है जिससे व्यक्ति का सम्यग् दर्शन परिपुष्ट होता है। अपनी स्वार्थपूर्ति और अहम् पुष्टि में संपत्ति का उपयोग दुरुपयोग मात्र है। सजगता और सेवा भावना से ओतप्रोत जीवन ही सही मायने में जीवन है जिसके चारों तरफ शांति और समता का निवास होता है। इस संसार में प्रत्येक आदमी के साथ समस्याएं हैं। व्यक्ति का पुण्य कमजोर व कर्म भारी है। उग्र पुरुषार्थ और व्यवस्थित आयोजन करने के बावजूद जीवन प्रतिकूलताओं से घिरा रहने वाला है। आदमी दुखी इसलिए है कि यह संसार उसके लिए अनुकूल नहीं है। हम सब कुछ अपने अनुकूल चाहते हैं और वैसा नहीं होने पर दुखी हो जाते हैं। हमें याद रहना चाहिए कि हम इस संसार के मालिक नहीं कुछ समय के मेहमान बनकर आए हैं। उन्होंने कहा वृत्ति का परिष्कार ही धर्म साधना का मुख्य उद्देश्य है। वृत्ति और भावना की निर्मलता ही साधना का आधार है । इंसान की भावना ही भव का निर्माण करती है इसलिए भावना को कलुषित और दूषित बनाने वाले निमित्त, व्यक्तिओं और वातावरण से परहेज करना ही समझदारी की निशानी है। कर्म बंधन भी व्यक्ति की वृत्ति पर निर्भर करता है। जब व्यक्ति का पुण्य क्षीण हो जाता है और पापों का अनुभाग बढ़ जाता है तब जीव की दशा बेहद खतरनाक हो जाती है । प्रवचन से पूर्व मुनि ने अन्तगड़सूत्र वाचन किया। मंत्री राजकुमार कोठारी ने संचालन किया।
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गीता शिक्षा का महान खजाना दिया
चेन्नई. एमकेबी नगर जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मप्रभा व स्नेहप्रभा के सान्निध्य में पर्यूषण पर्व का चौथा दिन प्रमोद दिवस के रूप में मनाया गया। इस मौके पर साध्वी धर्मप्रभा ने कहा कल्पसूत्र में जिन दस कल्पों का वर्णन मिलता है उनमें से पर्यूषण एक अनित्य कल्प है। प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के समय में ही पर्यूषण कल्प होता है मध्य के २२ तीर्थंकरों के समय में पर्यूषण नहीं होता है। साध्वी ने अचिलक्य, अद्विशिक, शय्यातर, राजपिंड, कृतिकर्म व व्रत आदि कल्पों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कृष्ण चारित्र के माध्यम से बताया कि संसार में अनंत प्राणी जन्मते व मरते हैं लेकिन सभी को पुरुषोत्तम नहीं कहा जाता। कोई भी मानव केवल सुंदर रूप, रूप, ऐश्वर्य या बल से पुरुषोत्सम नहीं कहला सकता। पुरुषोत्तम वही ंकहलाते हंै जो धरती पर जन्म लेकर धर्म की रक्षा करते हैं और धर्म रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर प्राण भी न्यौछावर कर देते हैं। भूले प्राणियों को सत्यपथ पर चलना सिखाते हैं। श्रीकृष्ण के अंदर भक्ति, प्रेम, वात्सल्य एवं पर-दुख निवारण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। उन्होंने संसार के समक्ष जो उदाहरण प्रस्तुत किए उनको भुलाया नहीं जा सकता। श्रीमद् भगवद्गीता के माध्यम से मानव को शिक्षा का खजाना दिया।
साध्वी स्नेहप्रभा ने कहा गुण ग्रहण करना, उनसे प्रेम करना, गुणीजनों को देख प्रमुदित होना, मुख की प्रसन्नता आदि से अंतस् में भावित भक्ति और अनुराग की अभिव्यक्ति होना ही प्रमोद है। विनम्रता, वैराग्य, अभय, निरभिमान व निर्लोभ आदि सारे गुण प्रमोद भावना में आते हैं। जिस मानव के मन में सबके प्रति मैत्री की भावना, गुणियों के प्रति प्रमोद भावना, हीन के प्रति करुणा भावना हो तो समझना चाहिए कि अब आत्मा मोक्ष की ओर अग्रसर हो रही है।