सात समंदर पार से इन्हें देखने आते है पावणे
जिला मुख्यालय सहित रतननगर, थैलासर, मेहणसर व बिसाऊ आदि कस्बों में मौजूद दो सौ साल से अभी अधिक पुरानी हवेलियों में इन्हें देखने सात समंदर पार से सैलानी आते हैं। रतननगर के रिटायर्ड प्राचार्य डा. पीडी डांवर ने बताया कि पहले कारीगर दिल्ली व आगरा आदि क्षेत्रों में बनी इमारतों में काम करते थे। इसके बाद लगभग 15 वीं शताब्दी में वहां से पलायन कर इलाके में लौटे। आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की मौत के बाद रतननगर, चूरू, थैलासर, रामगढ़, मेहणसर व बिसाऊ में 1861 से लेकर 19 वीं शताब्दी तक बनीं हवेलियों में कारीगरों ने रंगों से इन्हें सजाया। उन्होंने बताया कि भित्ती चित्रों के विषयों में रामायण, भगवान विष्णु के दशावतार, लोक कथाएं, राग रागिनियां, प्रकृति, वन्य जीवन व राजशाही सहित दैनिक जीवन के दृश्यों को उकेरा गया। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी आने के बाद चित्रों में फिरंगियों की जीवन शैली सहित रेलगाड़ी, हवाईजहाज, साइकिल, मोटर गाड़ी व पानी के जहाज सहित उस समय के हुए विकास को भी दिखाया गया है। वहीं धार्मिक चित्रों की शैली में श्रीलंका की चित्रकला का प्रभाव भी रहा।
आकर्षित करती है बारीक चित्रकारी
गांव थैलासर मूल के बीकानेर में इएनटी के प्रोफेसर डा. अजीतसिंह बताते हैं कि उस जमाने में गांवों में बनी हवेलियों में चित्रकारी दो विधि से की जाती थी। जिसमें एक मुराल व दूसरी फ्रेस्को होती थी। फ्रेस्को दरअसल इटेलियन पद्धति है, जिसमें भवन निर्माण के समय दीवारों पर प्लास्टर चढाने के साथ ही भित्ती चित्र बनाए जाते थे। इसमें सबसे खास बात ये होती थी कि जहां सूरज की रोशनी पड़ती थी, वहीं फ्रेस्को विधि के चित्र बनाए जाते थे। वहीं मुराल विधि के चित्र हवेलियों के भीतर बने निर्माण की दीवारें सूखने के बाद लकड़ी के फ्रेम बनाकर स्टेनसिल काटा जाता था। इसके बाद चित्रों का लेआउट महीन बिंदुओं के तौर पर उकेरा जाता था। बाद में चितेरे इन्हें फाइनल टच देकर रंगों से सजाते थे। मंजे हुए कारीगर भवनों के भीतर के चित्र उकेरते थे। जबकि नए कारीगर बाहरी दीवारों पर बड़े चित्र बनाते थे। उन्होंंने बताया कि एक हवेली की चित्रकारी में पांच से सात साल लगते थे।
वाष्पीकरण विधि से बनाते थे प्राकृतिक रंग
गांव रतनगनर के बुजुर्ग नोरंगलाल कटारिया (92) ने बताया कि इस कला के शुरूआती दौर मेंं केवल प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता था। जिसमें लाल व केसरिया रंग रोहिड़े के फूलों से तैयार करते थे। इसके अलावा काले रंग के लिए नारियल के कचरे को जलाते थे। चूने से सफेद, गेरू (लाल पत्थर) लाल के लिए, नील (इंडिगो) नीले के लिए, केसर नारंगी के लिए और पेवरी (पीली मिट्टी) व तुरई के फूलों से पीला रंग व गोल्डन ब्राउन के लिए गोमूत्र का इस्तेमाल किय जाता था। रंगों को वाष्पीकरण की विधि से तैयार किया जाता था। रंग फीके ना पड़े इसके लिए ऊंट की हड्डियों का अर्क, आक के पौधे का दूध, लसेड़ेे का गोंद व बैरजा मिलाया जाता था। बाद में 1920 के आसपास जर्मनी से रंग आने लगे थे।
पर्यटन को और बढावा मिले
भट्टी क्षेत्र पर शोध कर रहे लोहिया कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर डा. केसी सोनी ने बताया कि धोरों की सुनहरी मिट्टी में बसे इन गांवों का स्वर्णिम अतीत सरकारी उदासीनता के चलते पर्यटन के तौर पर परवान नहीं चढ़ पाया। अगर पर्यटन के बढावा मिले लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। हालांकि सैलानी आते हैं। मगर, यहां से कुछ किमी की दूरी पर स्थित मंडावा, फतेहपुर व लक्ष्मणगढ की तुलना में उनका आंकड़ा थोड़ा कम है।