कांग्रेस आज भी 2014 के बाद से उठ नहीं सकी है
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने आज एक बयान में अपनी पार्टी की वास्तविक स्थिति को सामने रखा। उन्होंने कहा कि ‘मुझे अभी ऐसा नहीं लगता कि हम अगले चुनाव में 300 सीट जीत पाएंगे।’ कांग्रेस में हर नेता इस बात को जनता और समझता है कि अब ये पार्टी पहले की तरह मजबूत नहीं रही है। वर्ष 2019 के आम चुनावों में भी पार्टी 50 सीटें भी जीत नहीं सकी थी। पूर्व से लेकर पश्चिम तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक कॉंग्रेस पार्टी का कद घटा ही है।
वर्ष 2019 के आम चुनावों में कॉंग्रेस की हालत 2014 से थोड़ी बेहतर थी। भाजपा पूरे बहुमत के साथ 2014 के मुकाबले अधिक सीटों (352) पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी।
वर्ष 2014 के आम चुनावों में NDA को कुल 337 सीटों पर जीत मिली जबकि 10 सालों तक सत्ता में रही कांग्रेस का सबसे बुरा प्रदर्शन देखने को मिला था। यूपीए को केवल 60 सीटें ही मिली थीं।
कारण:
कांग्रेस यदि 2024 के चुनावों में कुछ दलों के साथ भाजपा के खिलाफ खड़ी भी होती है तो आम जनता इस बार राहुल गांधी को पीएम पद के लिए चुने आवश्यक नहीं। पहले ही दो बार (2014 और 2019)आम जनता राहुल गांधी को नकार चुकी है। ऐसी स्थिति में प्रियंका गांधी या किसी अन्य के नाम पर अगर कॉंग्रेस दांव खेलती है तो शायद समीकरण में बड़े बदलाव देखने को मिले।टीएमसी बंगाल के अलावा किसी राज्य में नहीं
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराने के बाद ममता बनर्जी खुद को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना चाहती हैं। इसके वो लिए कांग्रेस को कमजोर कर रही हैं और अपनी उपस्थिति 10 राज्यों तक में बढ़ा चुकी हैं। टीएमसी अन्य पार्टियों को तोड़कर अपना संगठन मजबूत कर रही है, परंतु जब भी चुनाव हुए जनता ने इसे नकारा है।
मीडिया और कई बड़े नेता आए दिन ममता बनर्जी को लेकर चर्चा करते हैं, परंतु झारखंड हो, बिहार हो या दक्षिण-पश्चिम और उत्तर के राज्य हो, न ही टीएमसी को कोई जमीनी स्तर पर जानता है और न ही मानता है।
कीर्ति आजाद टीएमसी में शामिल हुए, परंतु एक भी सीट वो बिहार में नहीं जीत सके हैं। यहाँ जेडीयू को भी भाजपा की तुलना में कम सीटें मिली हैं।
वास्तव में टीएमसी सिर्फ बंगाल में ममता की जीत को भुनाने के लिए प्रचार कर रही है, पर वास्तविकता ये है कि 2024 के चुनावी लड़ाई में टीएमसी केवल मीडिया और नेताओं के भाषण में है न कि जमीनी स्तर पर।
विपक्ष में एकजुटता की कमी
हर बार संयुक्त विपक्ष का नारा सुनाई देता है परंतु एकजुटता कम इनमें तकरार अधिक देखने को मिलती है। वर्ष 2019 में गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा संयुक्त विपक्ष बनाने की बातें तो कई दलों ने की, परंतु ये तीसरा मोर्चा राष्ट्रीय स्तर पर फेल साबित हुआ था।
इसके विफल होने के कारण भी विचारधारा में अंतर, रणनीतियों में अंतर, नेतृत्व के लिए जंग और किसी भी मुद्दे पर एकराय न बनना रहा है। इस बार भी यही देखने को मिल रहा है। शरद पवार, ममता बनर्जी और केजरीवाल जैसे नेता खुद को महागठबंधन का चेहरा बनाने के लिए जोर दे रहे हैं। ममता बनर्जी कभी महाराष्ट्र कभी दिल्ली दौरा कर रही हैं, और विपक्षी नेताओं से मिल रही हैं।
दूसरी तरफ, कांग्रेस संयुक्त विपक्ष के जरिए भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेकना चाहती है और इसके लिए वो क्षेत्रीय पार्टियों के समक्ष झुकने को भी तैयार है।
इतने प्रयासों के बावजूद विपक्ष आज भी बिखरा हुआ है। इतिहास में भी देखें तो संयुक्त विपक्ष अगर बना भी है तो बुरी तरह से फेल साबित हुआ है। उदाहरण;
जितनी क्षेत्रीय पार्टियां उतना ही टकराव देखने को मिलता है। नतीजा ये होता है कि संयुक्त विपक्ष के नाम पर कोई साथ दिखाई नहीं देता। यदि क्षेत्रीय दल साथ भी आते हैं और ममता बनर्जी इनका नेतृत्व करती हैं तो 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा बनाम कांग्रेस बनाम संयुक्त विपक्ष देखने को मिल सकता है।
भाजपा रेस में आगे
भाजपा की लोकप्रियता भले ही कम हुई है, फिर भी तथ्य यही है कि अन्य कोई पार्टी इस लड़ाई में पीछे नजर आती है। कांग्रेस और मीडिया भले ही राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है, परंतु वास्तविकता इससे अलग है।