
गोरखपुर। 12 अगस्त 1857 की बात है, तरकुलहा माई के अनन्य भक्त आजादी के सिपाही बाबू बंधू सिंह की फांसी की तैयारियां हो चुकी थी। जल्लाद ने फांसी का फंदा जैसे ही वीर सपूत के गले में फंदा डाल उनको फांसी पर झुलाना चाहा फंदा टूट गया। सब आश्चर्य में थे, जल्लाद ने और मजबूत फंदा बनाया लेकिन फिर फंदा टूट गया। भारी संख्या में लोग यहां पहुंचे थे। सार्वजानिक स्थल पर फांसी देकर अँगरेज यह दिखाना चाहते थे कि बगावत करने वालों का अंजाम क्या होता लेकिन उनका दांव उल्टा पड़ता जा रहा था। मजबूत से मजबूत फंदा टूटता जा रहा था। चारों ओर माँ तरकुलहा देवी के जयकारे लगने लगे। अंग्रेज परेशान। जब छठीं बार फांसी का फंदा टूटा तो जल्लाद गिड़गिड़ाने लगा। जल्लाद गिड़गिड़ाने लगा कि अगर वह फांसी नहीं दे सका तो उसे अंग्रेज फांसी पर चढ़ा देंगे। इसके बाद बंधू सिंह ने मां तरकुलहा देवी को गुहार लगाई और प्रार्थना कर कहा कि उनको फांसी पर चढ़ जाने दें। उनकी प्रार्थना के बाद सातवीं बार जल्लाद ने जब फांसी पर चढ़ाया तो उनकी फांसी हो सकी। इस घटना के बाद मां तरकुलहा देवी का महात्म दूर दराज तक पहुंचा और धीरे-धीरे भक्तों का रेला वहां पहुंचने लगा जो आज भी जारी है।
गोरखपुर से बीस किलोमीटर दूर घने जंगलों में विराजमान हैं देवी माँ
गोरखपुर से करीब बीस किलोमीटर दूर देवीपुर गांव तरकुलहा देवी माँ का मंदिर है। घने जंगलो में विराजमान तरकुलहा माई का दरबार अब हर साल आने वाले हजारों-लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का तीर्थ बन चुका है। तरकुल के पेड़ के नीचे विराजी माता का भव्य मंदिर सबकी मुरादें पूरी कर रहा। हर साल लाखों श्रद्धालु मां का आशीर्वाद पाने के लिए आते हैं। मां भगवती के इस मंदिर में हर साल नवरात्रि में मेला लगता है। नवरात्रि के पहले दिन से ही मेले की शुरुआत हो जाती है।
मन्नत पूरी होने पर बांधते हैं घंटी
इस मंदिर के महात्म के बारे में लोग बताते हैं कि मन से जो भी मुराद मांगी जाए वह पूरी होती है। माता के मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं। दूर दराज से आए भक्त मां से मन्नतें मांगते हैं। जब पूरी हो जाती है तो यहां मंदिर में घंटी बांधने की परम्परा है। मंदिर परिसर में चारों ओर घंटियां देखने को मिल जाएगी। मन्नतें पूरा होने पर लोग अपनी क्षमता के अनुसार घंटी बांधते हैं। वर्ष पर्यंत यहाँ आने वालों का ताँता लगा रहता है लेकिन नवरात्रि में विशेष रूप से आस्थावान यहाँ आते है।
बकरे का मीट प्रसाद है यहां का
तरकुलहा देवी मंदिर में बकरा चढ़ाने की परम्परा है। लोग मन्नते मांगने आते हैं और पूरी होने के बाद यहां बकरे की बलि चढ़ाते हैं। फिर वहीं मिट्टी के बर्तन में उसे बनाते हैं और प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं।
बाबू बंधू सिंह चढ़ाते थे अंग्रेजों की बलि
मां अपने भक्तों की रक्षा हर जगह करती हैं। आजादी की लड़ाई से भी इस मंदिर का इतिहास जुड़ा है। अंग्रेज भारतीयों पर बहुत अत्याचार करते थे। डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह बहुत बड़े देशभक्त थे। वह अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंके हुए थे। बंधु सिंह मां के भी बहुत बड़े भक्त थे। 1857 के आसपास की बात है। जब पूरे देश में आजादी की पहली हुंकार देश में उठी। गुरिल्ला युद्ध में माहिर बाबू बंधू सिंह भी उसमें शामिल हो गए। वह घने जंगल में अपना ठिकाना बनाए हुए थे। जंगल में घना जंगल था। जंगल से ही गुर्रा नदी गुजरती थी। उसी जंगल में बंधू एक तरकुल के पेड़ के नीचे पिंडियों को बनाकर मां भगवती की पूजा करते थे। अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्ध लड़ते और मां के चरणों में उनकी बलि चढ़ाते। इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई। उन्होंने अपने गुप्तचर लगाए। अंग्रेजों की चाल कामयाब हुई और एक गद्दार ने बाबू बंधू सिंह के गुरिल्लाा युद्ध और बलि के बारे में जानकारी दे दी। फिर अंग्रेजों ने जाल बिछाकर वीर सेनानी को पकड़ लिया।
Published on:
21 Mar 2018 06:06 am
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