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ग्वालियर

चंबल सेंचुरी मे हुई नए मेहमानों की दस्तक, फोटो देखकर खिल जाएंगे आपके चेहरे

चंबल सेंचुरी मे हुई नए मेहमानों की दस्तक, फोटो देखकर खिल जाएंगे आपके चेहरे

ग्वालियरApr 14, 2018 / 01:24 pm

Gaurav Sen

chambal river

ग्वालियर/भिण्ड। अटेर स्थित चंबल नेशनल घडिय़ाल सेंचुरी में इन दिनों हरियल कबूतर यानी येलो फुट ग्रीन पिजन के एक बड़े समूह ने डेरा डाला हुआ है। पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि ये कबूतर यहां बसंत में आए हंै जो हल्की सर्दी पड़ते ही यहां से चले जाएंगे। इनका वैज्ञानिक नाम ट्रेरोन साइनीकोप्टेरा भी है। पीले पंजे और पंखों का रंग हरा होने से इन खूबसूरत कबूतरों को स्थानीय लोग हरियल, हारिल, हारीत या हारीतक या हाडि़ल के नाम से भी जानते हैं। करीब 125 से ज्यादा की संख्या में सुंदर पक्षी सेंचुरी में स्थित बबूल के पेड़ो पर डेरा डाले हुए हैं।

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अपने रंग के अनुरूप यह बरगद के विशालकाय पेड़ के पत्तों पर कुछ इस तरह घुल मिल जाते हैं कि इनको देखना आसान नहीं होता। बड़े आकार के हरियल को शाही पक्षी भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र का राज्य पक्षी है। वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट डॉ मनोज जैन के अनुसार, हरियल पक्षी की लगभग १५ प्रजातियां हैं। ये ताजे गूदेदार फलों को अपना आहार बनाते हैं।

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बरगद का फल (गूलर) इनका विशेष आहार है। इस वर्ष यह पक्षी बड़ी संख्या में चम्बल रिवर सेंचुरी में पहुंचे हैं। आमतौर पर देशी नीले कबूतरों के स्थान पर इन हरे कबूतरों का इस क्षेत्र में दिखना बेहद सुखद है। ये घने जंगलों में एकदम सुबह के वक्त पेड़ों की टहनियों में बैठे दिखाई देते हैं। डा.मनोज जैन के मुताबिक इनके जून के अंत तक चम्बल सेंचुरी में रहने का अनुमान है। ये कबूतर जनवरी में अंडे देते हैं।

21 से 25 दिनों के बीच में अंडे में से बच्चे निकल आते हैं। ये देशी कबूतरों और फाख्ताओं के बिरादर हैं। घनी पत्तियां और प्रचुर फल होने के कारण इन्हें पीपल, बरगद, अंजीर आदि के पेड़ खूब पसंद हैं। हरियल रसीले फलों और पत्तियों पर जमा ओस की बूंदों से ही अपनी प्यास भी बुझा लेते हैं। पेड़ों की शाखों पर ही सारा जीवन बिता देने वाले हरियलों के लिए कहा जाता है, ‘गही टेक छूट्यो नहीं, कोटिन करो उपाय/हारिल धर पग ना धरै,उड़त-फिरत मरि जाय।

सुबह ही नजर आते हैं यह शरमीले कबूतर

बेहद लजीले व शर्मीले हरियल प्रकृति की अनुपम देन हैं। शिकारियों ने इनका इतनी निर्ममता से शिकार किया कि अब ये पक्षी गिने.चुने ही रह गए हैं। इसकी सीटी जैसी बोली बहुत मीठी होती है। सुंदरता के साथ.साथ इसका मांस नर्म होता है, इसलिए इसका शिकार भी अधिक होता है। हरियल फल खाते समय कलाबाजी करते हैं। भारत में इसकी पांच.छह प्रजातियां पाई जाती हैं, जो रंग-रूप, स्वभाव में एक-दूसरे से मिलती हैं। उपजातियां मिलाकर इनकी लगभग डेढ़ दर्जन प्रजातियां हैं। ये पूरे भारत में पाए जाते हैं। इनकी उम्र करीब 26 वर्ष होती है। यह आठ-दस के झुंड में रहते हैं। इनके अंडे चिकने और लीची के बराबर होते हैं। बबूल के पेड़ों पर भी इनके घोंसले पाए जाते हैं। इन्हें बड़ी आसानी से पाला जा सकता है, लेकिन इन्हें ताजे फल न मिलें तो ये मर जाते हैं। इनकी खूबसूरती को अपने कैमरे में कैद करना बहुत कठिन है क्योंकि यह सुनसान इलाकों में सुबह होते ही दिखते हैं। इस समय सूरज की रोशनी भी कम होती है। ये मनुष्य की जरा-सी झलक मिलते ही छिप जाते हैं और चुप हो जाते हैं। हरा रंग होने और इनके हरे पत्तों में छुपे होने के कारण इनकी तस्बीर लेना प्राय: मुश्किल होता है।

हरियल या हाडि़ल कबूतर पक्षियों की एक दुर्लभ प्रजाति है, जो अत्यधिक शिकार के कारण शनै: शनै: खत्म हो रही है। चंबल सेंचुरी में इनका आगमन आश्चर्यजनक और सुखद है। इनके संरक्षण की जरूरत है।
डॉ मनोज जैन, वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट भिण्ड

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