यह कहानी है काव्या सोलंकी की। काव्या का एक बड़ा भाई है जिसका नाम अभिजीत है। अभिजीत को जन्म के कुछ माह बाद ही थैलीसीमिया हो गया था उसे छह वर्ष की उम्र होने तक 80 बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन से गुजरना पड़ा। आखिर में डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया और कहा कि बोन मैरो ट्रांसप्लांट से ही उसे बचाया जा सकता है। ऐसे में अभिजीत की बड़ी बहन के बोन मैरो लेने की बात सोची गई परन्तु उसका बोन मैरो मैच नहीं हुआ। ऐसे में उसके माता-पिता सहदेव और अपर्णा के पास एक ही विकल्प बचा कि एक नए बच्चे को जन्म दिया जाए और उसका बोन मैरो लेकर इलाज करवाया जाए।
नए बच्चे को जन्म देने के लिए IVF की प्रक्रिया को माध्यम बना कर 18 भ्रूण तैयार किए गए। उन सभी की जेनेटिक टेस्टिंग और बोन मैरो मैचिंग हुई। इनमें से एक को पूर्ण रूप से सही पाया गया और उसी को अपर्णा के गर्भाशय में इम्प्लांट कर जन्म दिया गया। सही समय पर अपर्णा ने एक स्वस्थ सुंदर बच्ची को जन्म दिया जिसका नाम काव्या रखा गया।
जब काव्या एक वर्ष की हो गई तब उसकी बोन मैरो ली गई और बड़े भाई अभिजीत में ट्रांसप्लांट की गई। इसके बाद अभिजीत को ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत नहीं पड़ी और काव्या भी पूर्ण रूप से स्वस्थ है। इस तरह काव्या को भारत की पहली सेवियर सिबलिंग होने की गौरव प्राप्त हुआ।
इस तरह की प्रक्रिया अपना कर बच्चों को जन्म दिए जाने पर लोगों के मन में एथिक्स को लेकर भी प्रश्न उठ रहे हैं। लोग इसे ‘डिजाइनर बेबीज’ पैदा करने का जरिया मान रहे हैं तो कुछ इस तरह जन्मे बच्चों के भविष्य को लेकर भी चिंतित दिखाई देते हैं। इस प्रक्रिया को लेकर मेडिकल कम्यूनिटी क्या रूख अपनाती है, यह देखना दिलचस्प होगा।