देश में गणेश उत्सव की गौरवशाली परंपरा का यह 125वां साल है। भारतीय समाज को एकजुट करने के लिए बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में सार्वजनिक गणेश उत्सव मनाने की घोषणा उन्हीं के संपादकीय में प्रकाशित हो रहे समाचार-पत्र केसरी के माध्यम से की थी। स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, कहकर अंग्रेजों के खिलाफ पहली बार क्रांति का बिगुल फूंकने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक मानते थे, यह उत्सव जाति व धर्म में बंटे समाज को एकजुट करने में मददगार साबित होगा।
अखाड़े के संचालनकर्ता श्रीधर भैया जोशी के बेटे प्रभाकर मराठे कहते हैं, तीन-चार साल गणेश उत्सव धूमधाम से श्रीराम मंदिर में हुआ। 1924 में गणेश उत्सव में एक दिन होलकर राजा तुकोजीराव गणपति पूजन के लिए पहुंचे। उनके आने पर गणपति उत्सव में भारी भीड़ जुट गई, जगह कम होने के कारण। महाराज ने गणेश उत्सव को सोनार बाड़ा (स्वर्णकारों का बाजार) ले जाने का निर्णय लिया। यह गली नंबर-4 के पास था। आयोजकों ने इसके बाद निर्णय लिया, गणेश उत्सव के लिए स्थायी जगह होनी चाहिए। उत्सव के चंदे के 650 रुपए में वर्तमान गणेश मंडल की जमीन खरीदी गई। 1927 से यहां पर उत्सव मनाया जाने लगा। छप्परों व पतरों के नीचे एक अखाड़े पर हर साल गणपति की मूर्ति स्थापना की जाती।
मराठे कहते हैं, 1927 में जेल रोड पर संचालित अखाड़े में इसी साल महारानी चंद्रावती होलकर उत्सव में शामिल होने अखाड़ा स्थल पहुंच गईं। उनके सामने अखाड़ा के जांबाजों ने करतब दिखाए, मलखम्ब की प्रस्तुतियां हुईं। इससे खुश होकर तुकोजीराव होलकर पत्नी व इंदौर की महारानी चंद्रावती होलकर ने 10 हजार रुपए की घोषणा की, जिससे गणेश उत्सव मंडल की खुद की इमारत का निर्माण कार्य शुरू हुआ। 1932 में इमारत बनकर तैयार हुई। तब से अब तक चंद्रावती हॉल में ही गणपति की स्थापना होती रही है। श्रीराम मंदिर के श्रीराम महाशब्दे ने बताया, बग्घी में गणपति की शोभायात्रा निकलती थी, जो पूरे नॉवल्टी का चक्कर लगाकर लौटती थी। भारी भीड़ पीछे-पीछे जयकार करते हुए चलती थी।