हरिशयनी एकादशी पौराणिक महत्त्व- पंडित जनार्दन शुक्ला बताते हैं कि देवशयनी या हरिशयनी एकादशी के विषय में पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है, जिनके अनुसार इस दिन से भगवान श्रीविष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्रीविष्णु उस लोक के लिए गमन करते हैं और इसके पश्चात् चार माह के अतंराल बाद विष्णु भगवान का शयन समाप्त होता है तथा इस दिन को देवोत्थानी एकादशी का दिन होता है। इन चार माहों में भगवान श्रीविष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है।
देवशयनी एकादशी पूजा विधि- देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है। दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगले दिन प्रात:काल उठकर दैनिक कार्यों से निवृत होकर व्रत का संकल्प करें। भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए। भगवान को ताम्बूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मंत्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए ।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा- प्रबोधनी एकादशी से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है। सूर्यवंशी मान्धाता नाम का एक राजा था। वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चरित्रवान था। वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता था। उसके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था परंतु एक समय राजा के राज्य में अकाल पड़ गया। अत्यन्त दुखी प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी। यह देख दुखी होते हुए राजा इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन ढूंढने के उद्देश्य से सैनिकों के साथ जंगल की ओर चल दिए। घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गए। राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम कर उन्हें अपनी समस्या बताई। इस पर ऋषि ने उन्हें एकादशी का व्रत करने को कहा। ऋषि के कथन अनुसार राजा ने एकादशी व्रत का पालन किया और उन्हें संकट से मुक्ति प्राप्त हुई।
बडे वाहन का सुख, स्त्री सुख
विष्णुपूजन से सभी भौतिक सुख प्राप्त होते हैं। विशेषकर बडे वाहन का सुख, स्त्री सुख प्राप्त करने के लिए विष्णुपूजन जरूरी है।