कुछ महीनों को छोड़ दें तो मध्यप्रदेश में लगातार भाजपा सरकार रही लेकिन पिछले तीनों विधानसभा चुनावों में दागियों को टिकट देने में कांग्रेस आगे रही। पिछले साल उपचुनाव में भी दागियों को ज्यादा उतारने वाली पार्टी कांग्रेस थी लेकिन सजा के लिहाज से गंभीर अपराध करने वालों को टिकट देने में भाजपा आगे रही। कांग्रेस ने गंभीर आरोप वाले 6 और भाजपा ने 8 उम्मीदवारों को उतारा।
राजस्थान में संख्या के लिहाज से दागी विधायकों की संख्या पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश से कम है लेकिन गंभीर आरोप वाले विधायकों की संख्या 10 साल में 8 से 28 तक पहुंचना चिन्ताजनक है। तेरह विधायकों पर 10 साल से अधिक पुराने मुकदमे हैं। इनमें सबसे पुराना मुकदमा वरिष्ठ विधायक कैलाश मेघवाल के खिलाफ है, जो 1996 का है। उन पर गृहमंत्री रहते भीड़ का समर्थन करने का आरोप है।
विधायक आशीष कुमार छाबड़ा ने चुनाव के समय पेश शपथ पत्र में खुद पर हत्या के प्रयास सहित 10 मुकदमे लंबित बताए थे। विकास उपाध्याय ऐसे विधायक हैं, जिन्होंने 22 साल पुराना मुकदमा लंबित होने का खुलासा किया। विकास उपाध्याय के खिलाफ 7 मुकदमे पंद्रह साल से अधिक पुराने थे।
सजा हो जाती है, उस पर दशकों तक स्टे चलता है और अपराधी चुनाव लड़ते रहते हैं। मुख्तार अंसारी को देख लें, कितने मुकदमे हैं लेकिन चुनाव जीतता है। सुप्रीम कोर्ट कुछ क्यों नहीं करता? चुनाव आयोग तो लगता है सरकार की जेब में बैठा है। दल अपराधियों को टिकट नहीं दें, ऐसा चाहते हैं तो राजनीति को नीचे से ऊपर तक साफ करना होगा। पहले बूथ लूटने में अपराधी नेताओं का साथ देते थे, अब वे स्वयं नेता बनने लगे हैं। अपराधी सदन में बैठें और कानून बनाएं तो दुर्भाग्यपूर्ण है। यह संविधान के लिए भी ठीक नहीं।
सुनील अंबवाणी, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, राजस्थान हाईकोर्ट
राजनेताओं को मुकदमे में फंसाना तो मुश्किल है लेकिन लंबित मुकदमों में छोटे भी काफी हैं। पार्टियों का टिकट देने का पैमाना है कि जीतने वाला होना चाहिए। हो सकता है मुकदमे झूठे भी हों लेकिन ट्रायल जल्दी होनी चाहिए। परंतु आम समस्या यह है कि राजनेता मुकदमों को लंबा खींच लेते हैं।
विजय हंसारिया, वरिष्ठ अधिवक्ता और दागी सांसद-विधायक मामले में सुप्रीम कोर्ट में न्याय मित्र