लांगडिय़ावास में एक सीमेंट कम्पनी रोजाना 300 से 400 टन कचरा लेने में सक्षम है लेकिन कम्पनी का काम देख रहे शलभ अग्रवाल कहते हैं कि सूखा कचरा तो दूर, कचरे में मिट्टी से लेकर पेड़-पौधों के पत्ते तक आ रहे हैं। जबकि इनका यहां कोई काम नहीं है। यहां बनने वाले ईंधन का कम्पनी अपने सीमेंट प्लांट में उपयोग करती है।
कचरे को काटकर लोहे-पत्थर के टुकड़े अलग किए जाते हैं। फिर मिट्टी को कचरे से दूर किया जाता है। इसके बाद बचा सामान बारीक कर प्लॉन्ट पर भेजा जाता है। वहां इसे 1800 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक तापमान पर जलाया जाता है।
डम्पिंग जोन पहुंचते-पहुंचते कचरा 2-3 हाथों से गुजरता है। ऐसे में रीसाइकिल होने वाला सामान इसमें से गायब हो जाता है। बना सकते हैं गैस व खाद
500 टन कचरे से 40 टन खाद बन सकती है। एक टन कचरे से गैस बनाकर 2 एलपीजी सिलेंडर भर सकते हैं। शहर के 1800 टन कचरे से प्रतिदिन 3600० सिलेंडर भरे जा सकते हैं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की ओर से तैयार बॉयो प्लॉन्ट कचरे का इसी तरह उपयोग करता है। मुम्बई में ऐसा ही किया जा रहा है।