लोकतंत्र का मतलब है जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन। इस परिभाषा को कम से कम पेट्रोल-डीजल की निरंतर आसमान छूती कीमतें झुठला रही है। देश में पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों ने आग लगा रखी है। याद आता है एक फरवरी 2015 को तत्कालीन नसीबवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह भाषण जिसमें उन्होंने अपने नसीब पर इठलाते हुए दिल्ली की चुनावी रैली में जनता से पूछा था- ‘पेट्रोल-डीजल सस्ता हुआ के नी… ‘ आपकी जेब का पैसा बचा के नी…’ और विपक्ष पर ली थी चुटकी। अब करीब साढ़े तीन साल बाद जनता सोच रही है- काश! वे भी होते नसीबवाले।
पीएम तो हैं, तेल कंपनियां भी हैं, क्योंकि 2014 से क्रूड ऑयल के अंतरराष्ट्रीय भाव जमीन चाटने लगे हैं, लेकिन फायदा सरकार और तेल कंपनियां की जेब में जा रहा है, जनता तो बेचारी निरीह, सूनी आंखों से सरकार की तरफ 1-2 रुपए कम करने की उम्मीद में टकटकी लगाए बैठी रही। पेट्रोल-डीजल के दामों का ग्राफ बीते जुलाई से बढ़ता जा रहा है, जो न जाने कहां जाकर रुकेगा। क्या मुंबई, क्या जयपुर, क्या चेन्नई, क्या जोधपुर सभी जगह लोगों को पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने जोर का झटका दिया है। जिस दिन पीएम ने ‘नसीबवाला’ भाषण दिया था, दिल्ली में पेट्रोल 58.91 रुपए और डीजल 48.26 रुपए प्रति लीटर था। आज 70 पार कर गया।
जहां तक क्रूड ऑयल के अंतरराष्ट्रीय भाव का सवाल है, केंद्र में मोदी सरकार के आने के वक्त 112 डॉलर प्रति बैरल था। जो एक अगस्त 2014 को 106 डॉलर प्रति बैरल हुआ और 14 सितंबर 2017 को 52.36 डॉलर प्रति बैरल रह गया। यानी 53 फीसदी भाव घटे, लेकिन इसका फायदा जनता को नहीं हुआ। जो लोग ओपेक इत्यादि के उदाहरण देकर सरकार का बचाव कर रहे हैं, वे हमेशा की तरह कुतर्काधारित सफाई दे रहे हैं। सीधा-सा गणित है कि जब 112 डॉलर प्रति बैरल भाव में 68-69 रुपए लीटर पेट्रोल मिल रहा था, तो भाव 48-52 डॉलर तक गिर जाने के बावजूद 75 रुपए से भी ऊपर कैसे पहुंच गया। इस सवाल के जवाब में बगलें झांकने के अलावा कोई सरकार समर्थक कुछ नहीं कर सकता।
किसी भी तेल कंपनी को रिफाइनरी से पेट्रोल 26.65 रुपए प्रति लीटर मिलता है। इस पर मार्केटिंग, ट्रांसफर इत्यादि खर्चे के 4.05 रुपए और सेंट्रल टैक्स (उत्पाद शुल्क यानी एक्साइज ड्यूटी) 21.48 रुपए लगते हैं। इस स्टेज तक भाव हो जाता है 52.18 रुपए प्रति लीटर इसमें डीलर कमीशन 3.24 रुपए और वैट, सेस के 14.96 रुपए जुड़कर भाव हो जाता है 70.38 रुपए प्रति लीटर (दिल्ली आधारित दरें), साफ है कि इसमें सेंट्रल और स्टेट टैक्स के 36.44 रुपए हैं। न हो तो, पेट्रोल सभी खर्चों और डीलर कमीशन को जोड़कर भी प्रति लीटर दाम 33.94 रुपए ही बैठते हैं। देखिए सरकार का खेल, मूल दाम से ज्यादा टैक्स हैं।
फिर क्यों सब्सिडी खत्म करने का एलान तेल कंपनियों के घाटे का रोना सुनते शायद देश की जनता के कान पक गए। इस कारण सब्सिडी कम करते हुए खत्म करने तक की बातें होने लगी। बातें क्या, सरकार ने तो सब्सिडी खत्म करने को कमर कस ली है। बात करें तेल कंपनियों की तो डॉलर और अंतरराष्ट्रीय दामों के प्रभाव से तेल कंपनियों का खर्चा बीते साल के मुकाबले तीन फीसदी घटा है। इंडियन ऑयल की ही बात करें तो इस कंपनी का मुनाफा बढ़ रहा है। बीते वित्त वर्ष में इस कंपनी को 17 हजार 240 करोड़ रुपए का नफा हुआ। इसके बावजूद सब्सिडी कम करने के लिए सरकार का दबाव है या फिर सरकार पर दबाव है। मुनाफा न होता तो बताइए जिस कंपनी ने यूपीए शासन में अपने सारे पेट्रोल पंप बंद कर दिए थे, इन तीन बरस में फिर से शुरू क्यों करती।
ओपेक का झूठा बहाना जो सरकार समर्थक तेल की कीमतों के लिए ओपेक का कुतर्क देते हैं, उन्हें शायद यह मालूम नहीं कि 1990 में एशियाई तेल निर्यातक देशों के इस समूह ने भारत साहित एशियाई आयातकों पर एक डॉलर प्रति बैरल ‘एशियाई प्रिमियम’ थोप दिया था। जो 1992 में डेढ़ डॉलर हो गया। अब हालात बदल चुके हैं, एशियाई तेल निर्यातक देश अंदरूनी राजनीतिक हालात के मद्देनजर शर्तों पर निर्यात की मजबूत स्थिति में नहीं हैं, दूसरी ओर भारत विश्व का तीसरा बड़ा आयातक बन कर निर्यातकों के लिए स्पर्धा का सबब बन गया है। साथ ही, अमेरिका से बढ़ती प्रगाढ़ता से भी तेल निर्यातकों पर दबाव है। ऐसे में भारत अपनी शर्तें मनवाने की स्थिति में है। जरूरत है, सही वक्त पर सही जगह बात करने की। इसके लिए गहरी कूटनीतिक समझ की दरकार होगी।
मांग घटना अच्छा संकेत नहीं
कीमतों के कारण हो या कोई और वजह, बीते माह अगस्त में डीजल की मांग जहां 3.7 फीसदी घटी है, वहीं पेट्रोल की मांग भी करीब एक प्रतिशत कम हुई है। तर्क दिया जा रहा है कि बाढ़ आदि प्राकृतिक कारणों से मांग घटी है। ऐसा है तो बहुत अच्छा, वर्ना 5.7 फीसदी तक गिर चुकी जीडीपी के लिए यह भयानक संकेत है।
कीमतों के कारण हो या कोई और वजह, बीते माह अगस्त में डीजल की मांग जहां 3.7 फीसदी घटी है, वहीं पेट्रोल की मांग भी करीब एक प्रतिशत कम हुई है। तर्क दिया जा रहा है कि बाढ़ आदि प्राकृतिक कारणों से मांग घटी है। ऐसा है तो बहुत अच्छा, वर्ना 5.7 फीसदी तक गिर चुकी जीडीपी के लिए यह भयानक संकेत है।