गांव में जैसे सबका स्वागत बाहें पसारे होता है वैसा ही श्रीनिवास जी के पुत्र का भी हुआ। पिता के साथ बैठे चाचा-ताऊ सभी को प्रणाम किया। फिर पिता-पुत्र को अकेला छोड़ देने के आशय से सभी ने अपने-अपने घर की राह ली। पिता ने अपने दुख, आक्रोश, अपमान का घूंट भरकर बेटे को भरपूर नजरों से निहारा। बेटा अपने नए सुसज्जित घर को देखते हुए खुश नजर आ रहा था। चंदा भी चाय लेकर आ गई थी। माथुर साहब ने बेटे को कंधे पर हाथ रख प्यार से निकट रखी कुर्सी पर बिठाया और चंदा को चाय नाश्ता पकड़ाने का इशारा किया।
पिता की आंखों में सुखद कल की चमक देख बेटा अचंभित था।
अचानक विचार तंद्रा तोड़ माथुर साहब खडे हुए। ‘बेटा तुम थोड़ा आराम करो थके होंगे।’ उन्हें चौक में आराम कुर्सी पर बैठ सुस्ताना उचित लगा। न चाहते हुए भी सारी घटनाएं फिल्म की तरह जेहन में घूमने लगीं।
प्रतिदिन का अकेलापन, पोते-पोती, बेटे-बहू का बदला हुआ रवैया देख अब उन्हें कुछ समझा भी आने लगा था। यह सब बातें उनके धैर्य की परीक्षा लेने के लिए काफी थीं। एक दिन अपने बेटे को इससे अवगत कराने के अंदाज से जब बात करनी चाही तो उनके बेटे ने उन्हें जमाने के बदलाव की दुहाई देते हुए समझााया कि आपको इन सब की आदत डालनी होगी। कुछ ही दिन बीते होंगे कि उनकी पुत्री आई और पिता को अपने साथ ले आई। दिन, हफ्ते महीने बीते। माथुर साहब सब कुछ जानते समझाते हुए भी स्वयं को समय के हाथों में सौंप कर जैसे युवा पीढी के साथ अपने ताल मेल की परीक्षा कर रहे थे। स्वयं को सब के अनुरूप ढालते ढालते माथुर साहब का सब्र जवाब दे गया। बेटी के यहां का माहौल भी उन्हें जोड़ नहीं पाया। अंदर के झांझाावतों से लड़ते सामना करते वापस अपने गांव पहुंचे।
उनके आगंन में जो किराएदार था और माथुर साहब के बीच एक मूक समझाौता हो गया। दोनों ही निस्वार्थ प्रेम की डोर से बंधे रहने लगे। दोनों परिवारों का खर्च मिलकर भी माथुर साहब के लिए इतना भारी नहीं था जितना अपनी ही संतान द्वारा डाला गया तिरस्कार का बोझा था।
अचानक बेटे की चप्पल की आवाज से माथुर साहब के विचार तंद्रा टूटी, बोले-‘चलो भोजन करते हैं।’ चंदा दो थाली में भोजन परोस लाई। लजीज दही बड़े, खस्ता कचौरी, बिल्कुल उसकी पसंद के दाल, चावल, रायता सभी कुछ थे जैसे उसकी मां बनाती थी। बेटा हक्का-बक्का सा खाना खाता रहा। कभी चंदा को निहारता, तो कभी पिता को देखता।
रमेश अपने परिवार के साथ आराम से भोजन करने बैठ गया। बच्चे स्कूल से आ गए थे। दादाजी-दादाजी करते दौड़ कर आए। नए अतिथि को देखकर ठिठक कर वापस चले गए। पुत्र अवसर देख कमरे में लेटे बाबूजी के सिरहाने बैठ गया। बेटा बोला- ‘यह परिवार अच्छा है। यह अस्थाई व्यवस्था ठीक है और बाबूजी आपने घर भी सुविधाजनक बना रखा है।
अब बोलने की बारी बाबूजी की थी-‘यह स्थाई व्यवस्था है बेटा। यह मेरा ध्यान रखते हैं और मैं इनका..।’
‘पर इन लोगों को आप जानते ही कितना है?’
‘ मैं जितना भी इनको जान पाया, ये उन लोगों से ज्यादा शुभ चितंक हंै जो मेरे अपने हैं। जब तक चाहो आराम से रह सकते हो, कोई कष्ट नहीं होगा।’
‘पर बाबूजी इन लोगों ने घर खाली नहीं किया तब …।’
‘मैं भी कहां चाहता हूं कि ये घर खाली करे। मेरी समस्याओं का समाधान है यह लोग।’
‘बाबूजी आपके जाने के बाद यदि इन लोगों ने कब्जा..।’ इतना ही बोल पाया था कि गरज पड़े माथुर साहब, ‘कहा ना समाधान है ये मेरा। आगे जाकर यह तुम्हारी समस्या है तो मंै अभी कुछ नहीं कर सकता उससे तुम निबटो।’
माथुर साहब के बेटे को रात की गाड़ी में बिठा कर जब रमेश वापस आया तो माथुर साहब शांत मुद्रा में बैठे रमेश के बच्चों के साथ खेल रहे थे।