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जयपुर

भारतीय जो ज़रूरतमंदों को बांटता है व्हील चेयर और अर्थो शूज

अमरीका के उटाह निवासी मोहन सुदाबत्तुला जगह-जगह से व्हीलचेयर एकत्र कर उसे जरुरतमंद लोगों में बांट देते हैं

जयपुरJun 24, 2019 / 08:39 pm

Mohmad Imran

wheel chair

भारतीय जो ज़रूरतमंदों को बांटता है व्हील चेयर और अर्थो शूज

अमरीका के उटाह में रहने वाले मोहन सुदाबत्तुला अपने माता-पिता के साथ वर्ष 2006 में दक्षिण भारत में अपने पैतृक गांव आए। रिश्तेदारों से मिलने और ऐतिहासिक स्थलों का दौरा करने के अलावा उनकी मां उन्हें एक अनाथालय और विकलांग बच्चों के लिए संचालित स्कूल भी लेकर गईं। उनकी मां का सोचना था कि मोहन के लिए यह देखना भी जीवन के प्रति उसके नजरिए को ढालने में जरूरी है। आज 23 साल के हो चुके मोहन ने देखा कि वहां कई बच्चों के अंग नहीं थे और कृत्रिम अंग न होने से वे रोज के कामों को करने में परेशानी उठा रहे थे। प्रबंधन लॉन की पुरानी कुर्सियों का उपयोग इन बच्चों के लिए व्हीलचेयर की तरह कर रहा था। लेकिन इन परेशानियों के बावजूद ये दिव्यांग बच्चे जिंदगी से शिकायत करने की बजाय इन चुनौतियों का मुस्कुराकर सामना कर रहे थे। उटाह में पैदा हुए मोहन के लिए भारत से आने के बाद भी उन बच्चों के चेहरों को भुला पाना मुश्किल हो रहा था। इस विचार ने उन्हें हर वक्त बेचैन रखा। फिर वर्ष २०१६ में उन्होंने भारत में रह रहे इन दिव्यांग बच्चों की मदद करने की ठानी।

ऐसे आया आइडिया
उटाह विश्वविद्यालय में मोहन स्वास्थ्य नीतियों, जीव विज्ञान और दर्शनशास्त्र तीनों विभाग के छात्र प्रतिनिधि (क्लास रिप्रेंजेंटेटिव अका मेजर) थे। इसके अलावा वे साल्ट लेक सिटी में शरणार्थियों के लिए चलाए जाने वाले अस्पताल में कृत्रिम अंग विभाग की ओर से विकलांग बच्चों के लिए कृत्रिम अंग बनाने के लिए स्वयंसेवक के तौर पर नाप लेने का काम भी करते थे। अपने काम के दौरान उन्होंने पाया कि ये बच्चे विभाग के दिए कृत्रिम अंगों को ज्यादा दिन पहीं पहनते और उतारकर रख देते क्योंकि उन्हें इससे असुविधा ज्यादा होती थी। साल्ट लेक सिटी और उटाह में रहने वाले इन बच्चों के माता-पिता कृत्रिम अंगों को वापस ले आते और प्रोटोकॉल के तहत अस्पताल प्रबंधन इन्हें जमा करने की बजाय फेंक देता था। भारत में व्हीलचेयर के लिए कुर्सियों में पहिए लगाकर काम चलाने की घटना ने मोहन को इन फेंके प्रोस्थेटिक का उपयोग करने का विचार दिया। दरअसल इन कृत्रिम अंगों को नाप लेकर जरुरतमंद बच्चों के लिए बनाया गया था इसलिए ये हर किसी के फिट नहीं हो सकते थे। मोहन ने सोचा कि क्यों न इन बेकार कृत्रिम अंगों और व्हीलचेयर्स को ऐसे लोगों को दिया जाए जो जरुरतमंद हो और उसे ये फिट भी आ जाएं।

प्रोजेक्ट एम्ब्रेस से की मदद
जरुरतमंद लोगों की मदद करने की भावना से प्रेरित मोहन ने प्रोजेक्ट एम्ब्रेस के नाम से एक साइट बनाई। यहां उन्होंने लोगों से उनके पास बेकार पड़े कृत्रिम अंग, व्हीलचेयर्स, बैसाखी, स्टिक, ऑर्थोटिक जूते और ऐसे ही अन्य जरुरत का सामान जमा कराने की अपील की। जुलाई 2017 से उन्होंने एकत्र किए गए सामान में से 500 चीजों को दुरुस्त कर उटाह में उन लोगों को बांटे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरुरत थी लेकिन वे इन्हें खरीद पाने में सक्षम नहीं थे। उन्होंने दक्षिण भारत और स्विट्जरलैंड में भी कुछ गैर सरकारी संस्थानों को यह सामान भेजा ताकि वे दिव्यांग बच्चों को मदद पहुंचा सकें। उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि जल्द ही उटाह और आस-पास के राज्यों से भी उनके पास ऐसे सामान देने वालों और जरुरतमंदों के बारे में बताने के लिए फोन आने लगे। आज वे साल्ट लेक सिटी में एक स्टोरेज यूनिट के जरिए इन सामानों का वितरण करते हैं और उटाह विश्वविद्यालय ने भी उन्हें कार्यालय चलाने के लिए जगह उपलब्ध करवाई है। आज प्रोजेक्ट एम्ब्रेस से आस-पास के स्कूल और कॉलेज के बच्चों के अलावा कबाड़ वाले, परिवार और कई सामाजिक संगठन भी जुड़े हुए हैं। हाल ही मोहन और उनके साथियों ने उटाह-एरिज़ोना सीमा पर भी शरणार्थियों और जरुरतमंदों को व्हीलचेयर्स, वॉकर्स और अन्य मेडिकल उपकरण वितरित किए। उन्होंने दक्षिण भारत के उस अनाथाश्रम और दिव्यांग बच्चों के स्कूल में भी जरुरतमंद बच्चों को यह सामान वितरित किया जहां वे कुछ साल पहले आए थे।

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