याचिका में कहा गया कि राज्य सरकार ने अपनी रिविजनल शक्तियों का प्रयोग करते हुए समितियों के गठन के प्रस्ताव को निरस्त किया है। इस तरह का आदेश देने के पहले उनका पक्ष सुना जाना जरूरी था, लेकिन राज्य सरकार ने उनका पक्ष सुने बिना ही समितियों के गठन के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया। नगर पालिका अधिनियम के तहत यदि बैठक के किसी प्रस्ताव से आयुक्त असहमत है तो उसे बैठक में ही अपनी असहमति जतानी चाहिए। यदि फिर भी कार्रवाई नहीं हो तो वह राज्य सरकार को अपना डिसेंट लेटर भेज सकते हैं। लेकिन इस मामले में आयुक्त ने समितियों के गठन के संबंध में आयोजित बैठक में अपनी असहमति जाहिर नहीं की।
दवाब आने पर बाद में नियमों के विपरीत जाकर राज्य सरकार को अपना डिसेंट लेटर भेज दिया। जबकि बैठक में समितियों के गठन के प्रस्ताव को बहुमत से पारित किया गया था। राज्य सरकार ने यदि आयुक्त के डिसेंट लेटर के आधार पर सभी समितियों के गठन के प्रस्ताव को निरस्त किया है तो भी वह नियमानुसार सही नहीं माना जा सकता। आयुक्त ने सिर्फ सात अतिरिक्त समितियों के गठन को लेकर अपना डिसेंट लेटर भेजा था, लेकिन राज्य सरकार ने सभी समितियों के गठन के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया।
राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता अनिल मेहता ने कहा कि राज्य सरकार को मामले में दिशा-निर्देश जारी करने का अधिकार है। राज्य सरकार ने नियमों के तहत की समितियों के गठन को निरस्त किया है। समितियों में बाहरी लोगों को शामिल किया है उनकी योग्यता, अयोग्यता का ध्यान नहीं रखा गया है। जिस पर न्यायाधीश अशोककुमार गौड़ ने समितियों के गठन का प्रस्ताव निरस्त करने के आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए सुनवाई के लिए 29 अप्रैल की तारीख तय की है।