हालांकि, रमा पायलट को 27 हजार मतों से हार गईं थीं। बुधनी व झालरापाटन को छोड़ दें तो प्रमुख दलों के बड़े नेताओं के समक्ष विपक्षी दल अमूमन अनजान चेहरों पर ही दावं खेलते हैं। एक-एक सीट के लिए मशक्कत करने वाले दलों में शीर्ष प्रतिद्वंद्वी के प्रति उदारता के मायने समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है, पर शीर्ष नेताओं को आसान मुकाबला मिलने के निहितार्थ गहरे हैं।
राजस्थान में कुछ ऐसा ही रहा, कद्दावर के समक्ष कमतर। फिर चाहे वह 17 साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे मोहनलाल सुखाडिय़ा रहे हों या हरिदेव जोशी। भाजपा दिग्गज भैरोंसिंह शेखावत के खिलाफ कांग्रेस ने कभी दमदार प्रत्याशी नहीं उतारा। यही हाल वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के निर्वाचन क्षेत्रों का रहा। बांसवाड़ा से लगातार जीत दर्ज करने वाले हरिदेव जोशी के खिलाफ 1967 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के केशवचंद सामने थे तो 1972 के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विजयपाल मैदान में उतरे। 1977 के फिर केशवचंद ने जनता पार्टी के टिकट पर जोशी को चुनौती दी लेकिन हार गए।
1980 के चुनाव में भाजपा के सरपत राय दवे जोशी से पराजित हुए। 1980 में छबड़ा सीट से शेखावत के समक्ष कांग्रेेस के रामप्रसाद मीणा हार गए। 1985 में निंबाहेड़ा सीट पर कांग्रेस ने मधु दाधीच की दाल भी शेखावत के सामने नहीं गली।
1990 में छबड़ा में शेखावत के सामने कांग्रेस के जगमोहन सिंह जमानत भी गंवा बैठे। 1993 में बाली में शेखावत के सामने कांग्रेस के मीठालाल जैन व 1998 में उम्मेद सिंह पस्त हुए। जोधपुर की सरदारपुरा सीट पर कांग्रेस के दिग्गज अशोक गहलोत के सामने भाजपा से 2003 में महेंद्र झाबक, 2008 में राजेंद्र गहलोत तो 2013 में शंभूसिंह खेतासर चारों खाने चित हुए। वसुंधरा राजे की झालरापाटन सीट पर 2008 में कांग्रेस ने यहां मोहनलाल और 2013 में मीनाक्षी चंद्रावत पर दावं खेला। दोनों बार राजे आसानी से जीतीं।
सुखाडिय़ा उदयपुर शहर से लगातार जीते पर 1967 के चुनाव में जनसंघ के भानु कुमार शास्त्री ने उन्हें पसीने छुड़ाए। इस चुनाव में सुखाडिय़ा सिर्फ 3,431 मतों से ही जीत हासिल कर पाए थे।
कुछ इसी तरह 1971 में जयपुर की गांधीनगर सीट से भैरोंसिंह शेखावत को कांग्रेस के जनार्दन सिंह गहलोत के हाथों पराजय झेलनी पड़ी। 1993 के चुनाव में शेखावत गंगानगर सीट पर कांग्रेस के राधेश्याम गंगानगर को चुनौती देने पहुंचें, लेकिन शेखावत हार बैठे।
प्रदेश के दूसरे अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में प्रमुख दलों के दिग्गज उम्मीदवारों के सामने दमदार प्रत्याशी उतार घेरने की रणनीति पर काम होते कम ही देखा गया है। देखना दिलचस्प होगा क्या राज्य में मध्यप्रदेश की बुधनी सीट जैसा रोचक मुकाबला देखने को मिलेगा?
इस बार की हकीकत आपको बताएगा पत्रिका
भाजपा और कांग्रेस की लिस्ट जल्द ही आने वाली हैं। इसके बाद दिग्गजों की सीटों के बारे में पत्रिका पूरी गहराई से विश्लेषण कर असल तसवीर सामने रखेगा। जनता के लिए यह समझना जरूरी है कि बडे नेताओं के सामने आसान शिकार आपसी सहमति से आते हैं, या विकल्पहीनता की वजह से!
यों होती थी नुक्कड़ सभाएं
बांसवाड़ा वर्तमान समय मे चुनावी सभाओं में मतदाताओं को रिझाने के लिए तमाम तरह के उपक्रम किए जाते हैंए लेकिन बीते दौर में अल्प संसाधनों की उपलब्धता के बीच ही चुनाव प्रचार के दौरान नुक्कड़ सभाएं की जाती थी। यह चित्र 1980 के दशक में पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी के चुनाव लडऩे के दौरान शहर में आयोजित चुनावी नुक्कड़ सभा का है। मंच पर स्वयं प्रत्याशी जोशी बैठे हैं। दीवारों पर वोट की अपील करती इबारत लिखी है। अधिकांश कार्यकर्ता खादी टोपी पहने हुए हैं जो अब कम ही नजर आती है।
हरिदेव जोशी (बांसवाड़ा)
1972————-25 हजार
1977————-6 हजार
1980————-24 हजार
भैरोंसिंह शेखावत (छबड़ा-बाली)
1990————-35 हजार
1993————-10 हजार
1998————-8 हजार
अशोक गहलोत (सरदारपुरा)
2003————-19 हजार
2008————-15 हजार
2013————-18 हजार
वसुंधरा राजे (झालरापाटन)
2003————-27 हजार
2008————-32 हजार
2013————-61 हजार जीत का अंतर