आदिवासियों का एक अपना ही संसार होता है। अपने रिवाज, रहन-सहन, कला, पहनावे में ये लोग अपने जीवन का भरपूर आनंद लेते है। इनके नृत्य जहां खास अवसरों पर खुशी को कई गुना बढ़ा देते हैं, वहीं इन लोक नृत्यों में उमंग, ऊर्जा और उत्साह का इनकी आस्था के साथ अनूठा मिलन भी देखने वालों को आनंदित कर देता है। ऐसा ही नजारा जयपुर के जवाहर कला केंद्र ( jkk Jaipur ) में लोकरंग के दौरान दिखाई दिया। इन लोगों की प्रस्तुति ने सभी की वाहवाही लूटी।
आइए जानते हैं इन कलाकारों और इनकी जनजाति के बारे में…
आदिवासियों की एक जनजाति है राठवा, ( details of Rathwa tribe of tribals ) जो मूल रूप से गुजरात के उदेपुर जिले में रहते हैं। इस जनजाति का एक खास लोक नृत्य है, जिसे ’राठवा नृत्य’ ( Rathwa Dance ) के नाम से जाना जाता है। कभी अपने क्षेत्र विशेष में सिमटा इनका यह डांस कुछ वर्षों से समूचे देश में विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए विशेष पहचान बना चुका है। एक बार इस लोकनृत्य को देखने वाला इस कला का मुरीद हो जाता है।
आदिवासियों की एक जनजाति है राठवा, ( details of Rathwa tribe of tribals ) जो मूल रूप से गुजरात के उदेपुर जिले में रहते हैं। इस जनजाति का एक खास लोक नृत्य है, जिसे ’राठवा नृत्य’ ( Rathwa Dance ) के नाम से जाना जाता है। कभी अपने क्षेत्र विशेष में सिमटा इनका यह डांस कुछ वर्षों से समूचे देश में विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए विशेष पहचान बना चुका है। एक बार इस लोकनृत्य को देखने वाला इस कला का मुरीद हो जाता है।
’गेर मेला’ विश्व प्रसिद्ध है ( Germela ) गुजरात के वडोदरा से करीबन सौ किलोमीटर की दुरी पर छोटा उदेपुर जिले के विभिन्न गावों में रहते हैं राठवा आदिवासी। ये आदिवासी अपने लोक संगीत और गीतों में अपनी पौराणिक कथाएं सुनाने के लिए प्रसिद्ध है। इनकी वेशभूषा और लोक नृत्य मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इनके लिए होली सर्वाधिक उल्लास का त्योहार होता है। इस त्योहार पर भरने वाला इनका ’गेर मेला’ विश्व प्रसिद्ध है, जिसमें होने वाले इनके लोक नृत्य बहुत लोकप्रिय हैैं।
अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनते हैं ( Tribal tribe Rathwa ) बंशी राठवा बताते हैं कि यह मेला होली के दूसरे दिन यानी धुलंडी से पांच दिन तक पांच आदिवासी गांवों में भरता है। इसी मेले में नर्तक-नर्तकियों का ग्रुप पांच दिन तक अलग-अलग गांव में जाकर नाचता-गाता है, जिसमें उस गांव के सभी आदिवासी शामिल होते हैं। इसी मेले में युवक युवतियां अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनते हैं, जिन्हें समाज दंपती के रूप में स्वीकार कर लेता है। वे बताते हैं, दरअसल गरीबी के कारण शादी समारोह का खर्चा नहीं कर पाने के कारण यह परंपरा शुरू की गई है।
राठवा खतरी देव (पितर) का ही पूजन करते हैं कंचनसिंह राठवा बताते हैं कि इस मेले में सालभर अच्छी फसल और घर में सांप-बिच्छू काटने से किसी परिजन की मृत्यु नहीं होने पर राठवा आदिवासी परिवार शामिल होते हैं और खुशियां मनाते हैं। वे बताते हैं कि राठवा खतरी देव (पितर) का ही पूजन करते हैं, चाहे शादी हो या अन्य कोई उत्सव या मेला।
राठवा नृत्य-
इस लोक नृत्य में आदिवासी नर्तक-नर्तकियों का समूह लय और ताल में मनभावन नृत्य पेश करते हुए उमंग और उत्साह के साथ खुशी का प्रदर्शन करते हैं। नृत्य के दौरान इनके करतब देख दर्शकों की सांसें थम जाती हैं। युवतियां जब युवकों के कंधे पर खड़ी होकर झूमती हैं और युवक भी झूमते हुए एक गोले में घूमते हैं तो दर्शक दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो जाते हैं।
वाद्ययंत्र- इस नृत्य के लिए बड़ा ढोल, जिसे ये राम ढोल कहते हैं, के साथ ही छोटा ढोल, शहनाई, कांसे की थाली और ततोड़ी का इस्तेमाल इतने शानदार ढंग से करते हैं कि लोग झूमने लगते हैं।
वेशभूषा-
इस नृत्य में युवतियां लाल ओढणी, उबलो घाघरो, लीली अंगरखी, मोरपंख धारण कर रेशमी रूमाल हाथ में लेकर नाचती हैं। युवक मोरपंख का बना मुकुट, वस्त्र से बना विशेष प्रकार का कमर पट्टा और धोती पहनते हैं। इनके शरीर पर सफेद मिट्टी से विभिन्न आकृतियां बनाई जाती हैं।
इस नृत्य में युवतियां लाल ओढणी, उबलो घाघरो, लीली अंगरखी, मोरपंख धारण कर रेशमी रूमाल हाथ में लेकर नाचती हैं। युवक मोरपंख का बना मुकुट, वस्त्र से बना विशेष प्रकार का कमर पट्टा और धोती पहनते हैं। इनके शरीर पर सफेद मिट्टी से विभिन्न आकृतियां बनाई जाती हैं।