प्राचीन समय से महापंचायत होती रही है, इसमें अलग-अलग जातियों, सम्प्रदायों के लोग मिलकर एक साथ इकट्ठे होते हैं और किसी मुद्दे पर अपनी राय रख कर उसे सुलझाने का प्रयास करते हैं। यहां जो निर्णय लिया जाता है, उसे अमिट मान कर भविष्य में आने वाली समस्याओं के लिए नजीर बना दिया जाता है।
कृषि बिलों को लेकर 26 नवंबर को जब किसानों का विरोध प्रदर्शन शुरु हुआ था तब तक महापंचायत की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन जब आंदोलन आगे बढ़ने लगा और किसानों की संख्या भी बढ़ने लगी तब महापंचायत बुलाने का ऐलान किया गया। इसके बाद 26 जनवरी को किसान ट्रैक्टर रैली में हुई हिंसा के बाद पूरा परिदृश्य ही एकदम से बदल गया और खाप महापंचायत किसानों के समर्थन में उतर आई। महापंचायत ने खुल कर किसान नेता राकेश टिकैत का समर्थन किया।
यदि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में महापंचायतों की भूमिका देखी जाए तो देखने को मिलेगा कि ये एक बहुत बड़े वोट बैंक की तरह काम करती हैं। इनके एक आह्वान पर बड़ी-बड़ी पार्टियों के नेताओं को हारते और जीतते देखा जा चुका है। मनोवैज्ञानिक तौर पर एक आदमी सामूहिक चेतना के साथ जुड़ने और उसके जैसा दिखने का प्रयास करना चाहता है। महापंचायतों के साथ बहुत बड़ी संख्या में किसान जुड़े हुए होते हैं जिनके परिवार और जानकारों को मिलाया जाए तो एक ऐसा वर्ग बनता है जो अपने नेतृत्व के एक इशारे पर कुछ भी करने के लिए तत्पर रहता है।