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Madam Chief Minister Movie Review : सियासी नहीं, ‘जख्मी औरत’ मार्का बदले की बचकाना ड्रामेबाजी

locationमुंबईPublished: Jan 23, 2021 04:08:38 pm

भावी सीएम का भाषण- ‘मैं कुंवारी हूं, तेज कटारी हूं, पर मैं तुम्हारी हूं’
फिल्म की शुरुआत में पट्टी दिखा दी कि कहानी पूरी काल्पनिक है
सियासत के नाम पर बचकाना और हास्यास्पद घटनाओं की भरमार

Madam Chief Minister Review

Madam Chief Minister Review

-दिनेश ठाकुर

पहले के जमाने में जब फिल्मी नायिका पर जुल्म होता था, तो वह एक बंदूक और घोड़े का बंदोबस्त कर डाकू बन जाती थी। दौड़ा-दौड़ा कर, छका-छका कर, थका-थका कर जुल्म करने वालों का बैंड बजाती थी। जमाना बदल गया। फिल्में ज्यादा नहीं बदलीं। फिल्म वाले ‘भावना मन में बदले की हो न’ (इतनी शक्ति हमें देना दाता) की प्रार्थना भी सुनाते रहे, बदला लेने के ड्रामे भी नाम बदल-बदल कर दिखाते रहे। ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ ( Madam Chief Minister Movie ) इसी कड़ी का नया ड्रामा है। इसे सियासी ड्रामा समझने की गलती मत कीजिए। जो सियासत में कभी नहीं हुआ, वह इस फिल्म में दिखाया गया। फिल्म वाले कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाने में माहिर हैं। अमिताभ बच्चन ने ‘इंकलाब’ (1984) में मुख्यमंत्री बनकर बंद कमरे की बैठक में अपनी पार्टी के तमाम भ्रष्ट नेताओं का काम तमाम कर दिया था। ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में उसी तरह के खून-खराबे वाला सीन है। यहां बदमाश ‘बाड़ाबंदी’ में रखे गए मुख्यमंत्री (रिचा चड्ढा) ( Richa Chaddha ) के वफादार विधायकों का काम तमाम करने पहुंच जाते हैं।

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घूम-फिरकर लौटे पुराने आइटम
आपने ऐसी भावी मुख्यमंत्री नहीं देखी होगी, जो सभा में ऐसा भाषण देती हो- ‘अपने नौजवान साथियों से कहना चाहती हूं, मैं कुंवारी हूं, तेज कटारी हूं, पर मैं तुम्हारी हूं।’ याद आता है कि के. विश्वनाथ की ‘संगीत’ (1992) में माधुरी दीक्षित पर (उस फिल्म में वह नौटंकी वाली बनी थीं) इसी तरह का गाना फिल्माया गया था- ‘मैं तुम्हारी हूं, तुम्हारे लिए ही कुंवारी हूं।’ दुनिया गोल है। पुराने आइटम घूम-फिरकर फिर फिल्मों में आ जाते हैं। ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ बनाने वाले सुभाष कपूर जानते थे कि कहानी उत्तर प्रदेश की दलित मुख्यमंत्री की होने की वजह से सियासी पारा चढ़ सकता है। इसलिए उन्होंने शुरू में ही पट्टी दिखा दी कि कहानी पूरी काल्पनिक है। इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से लेना-देना नहीं है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश में सियासत के एक वर्ग ने फिल्म को निशाने पर ले रखा है।

जुल्म की शिकार नायिका
कहानी यह है कि दलित नायिका (रिचा चड्ढा) और उसकी जाति के लोगों पर उत्तर प्रदेश में जुल्म हो रहे हैं। जब वह लाइब्रेरियन थी, कॉलेज के ऊंची जाति के उद्दंड छात्र उससे ‘कामसूत्र’ की कॉपी की मांग करते थे। सबसे बड़ा जुल्म यह कि ऊंची जाति का छात्र नेता (आकाश ओबेरॉय) प्रेम में धोखा देता है। अपने हक के लिए आवाज उठाने पर वह बुरी तरह पिट कर बुजुर्ग नेता (सौरभ शुक्ला) की पनाह में पहुंचती है। सियासत के दांव-पेच में माहिर होकर मुख्यमंत्री बन जाती है। ‘मैं इंतकाम लूंगी’ उसका एक सूत्री एजेंडा है। उसे बदला लेना है उस एक्स प्रेमी छात्र नेता से, जिसने गर्भवती होने पर ऊंच-नीच का हवाला देकर उससे किनारा कर लिया था। उसे बदला लेना है, उन सियासी विरोधियों से, जो उसे कुर्सी से हटाने की साजिश रचते रहते हैं। जनता के प्रति मुख्यमंत्री की जिम्मेदारियां निभाने के बजाय उसकी दिलचस्पी सिर्फ अपने विरोधियों को सबक सिखाने में है।

सियासत और सत्ता पर सतही सोच
एक सीन में सौरभ शुक्ला कहते हैं- ‘दबंगों को सत्ता का घमंड है। घमंड टूटेगा हमारी सत्ता से’, तो साफ हो जाता है कि ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ बनाने वाले सियासत और सत्ता को लेकर कितनी सतही सोच रखते हैं। विरोधियों को ठिकाने लगाने भर से क्या हो सकता है? कंटीले पेड़ों को काट देने से कुछ नहीं होगा। इनके बीज ढूंढे जाने चाहिए। फिल्म की ज्यादातर घटनाएं संवेदनाओं और भावनाओं से कोसों दूर हैं। हर किरदार शेखचिल्ली टाइप के संवादों के लिए लालायित लगता है। रिचा चड्ढा जब बड़बोले संवाद झाड़ती हैं, तो मुख्यमंत्री कम, ‘हंटरवाली’ या ‘पुतलीबाई’ ज्यादा लगती हैं। एक्टिंग के मामले में सौरभ शुक्ला और आकाश ओबेरॉय थोड़ी-बहुत राहत देते हैं। मानव कौल का किरदार निहायत कमजोर है। वह चाह कर भी कुछ खास नहीं कर पाए।

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शुरुआत में बंधी उम्मीदें टूट गईं
शुरुआत में जब नायिका के पिता की ऊंची जाति के लोग हत्या कर देते हैं और दादी चौथी बार लड़की होने पर उसकी हत्या की कोशिश करती है, तो लगा था कि ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ जातीय भेदभाव, कन्या भ्रूण हत्या जैसे मसलों के विरोध को धार देगी, लेकिन आगे ऐसा कुछ नहीं होता। फिल्म न दलितों के संघर्ष और ऊंच-नीच के मसले पर फोकस कर पाती है, न सियासत में किसी महिला के उदय के प्रति संजीदा नजर आती है। फार्मूलों के फेर में कभी ‘खून भरी मांग’, कभी ‘प्रतिघात’ तो कभी ‘जख्मी औरत’ होती रहती है। बचकाना कहानी वाली इस फिल्म की फोटोग्राफी जरूर अच्छी है। उत्तर प्रदेश के गांव और शहरों का माहौल पर्दे पर बखूबी उभरा है। सुभाष कपूर की पिछली फिल्मों ‘फस गए रे ओबामा’ और ‘जॉली एलएलबी’ की तरह ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में भी गीत-संगीत के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। अटपटे बोलों वाला ‘चिड़ी-चिड़ी तो उड़ी-उड़ी’ सिर्फ खानापूर्ति के लिए चिपकाया गया है।

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