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इस व्रत में होती है ‘चील’ और ‘सियारिन’ की पूजा, प्रतिमा बनाकर लगाते हैं धूप

एक ऐसा भी व्रत है जिसमें चली और सियारिन की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है। आज हम आपको उसी के बारे में बताने जा रहे हैं।

Sep 23, 2016 / 01:17 pm

Abha Sen

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जबलपुर। आपने अब तक अनेक व्रतों के बारे में सुना और उन्हें धारण किया होगा। हर एक की अपनी मान्यताएं हैं। लेकिन एक ऐसा भी व्रत है जिसमें चली और सियारिन की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है। आज हम आपको उसी के बारे में बताने जा रहे हैं। 23 सितंबर को जीवित्पुत्रिका व्रत मनाया जा रहा है। धार्मिक रूप में जीवित्पुत्रिका व्रत का विशेष महत्व है। यह व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए निर्जला उपवास और पूजा-अर्चना के साथ संपन्न होता है। 

आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा अपनी संतान की आयु, आरोग्य व उनके कल्याण के लिए इसे किया जाता है। इसे जीतिया या जीउजिया, जिमूतवाहन व्रत भी कहते हैं। यह व्रत करने से अभीष्ट की प्राप्ति होती है व संतान का सर्वमंगल होता है। यहां हम आपको जीवपुत्रिका व्रत से जुड़ी रोचक महत्ववपूर्ण बातें बताने जा रहे हैं…


व्रत कथा
इस व्रत से जुड़ी कई लोक कथाएं प्रचलित हैं। इसमें से एक कथा चील और सियारिन की है। प्राचीन समय में एक जंगल में चील और सियारिन रहा करतीं थीं। दोनों मित्र थीं। एक बार कुछ स्त्रियों को यह व्रत करते देखा तो उन्होंने भी व्रत करना चाहा। दोनों ने एक साथ इस व्रत को किया, किंतु सियारिन इस व्रत में भूख के कारण व्याकुल हो उठी व भूख सही न गई। 

उसने चुपके से खाना ग्रहण कर लिया। चील ने पूरी निष्ठा के साथ व्रत किया। परिणाम यह हुआ कि सियारिन के जितने भी बच्चे होते, कुछ दिन में मर जाते। व्रत निभानेवाली चील के बच्चे दीर्घायु हुए।

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व्रत पूजन
प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष के मध्य आने वाले इस व्रत में पुत्रों की लंबी उम्र के लिए माताएं पितराइनों (महिला पूर्वजों) व जिमूतवाहन को सरसों तेल व खल्ली चढ़ाती है। इस पर्व से जुड़ी कथा की चील व सियारिन को भी चूड़ा-दही चढ़ाया जाता है। सूर्योदय से काफी पहले ओठगन की विधि पूरी की जाती है। इसके बाद व्रती जल पीना भी बंद कर देते हैं। 


यत्राष्टमी च आश्विन कृष्णपक्षे यत्रोदयं वै कुरुते दिनेश:। 
तदा भवेत जीवित्पुत्रिकासा। यस्यामुदये भानु: पारणं नवमी दिने।

अर्थात् जिस दिन सूर्योदय अष्टमी में हो, जीवित्पुत्रिका व्रत करें और जिस दिन नवमी में सूर्योदय हो, उस दिन पारण करना चाहिए। सुबह स्नान उपरांत जिमूतवाहन की पूजा की जाती है व सारा दिन बिना अन्न-जल के व्रत किया जाता है। 

जिमूतवाहन की पूजा और चिल्हों-सियारों की कथा सुनी जाती है व खीरा व भीगे केराव का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसी प्रसाद को ग्रहण कर व्रत पूर्ण किया जाता है। मान्यता है कि कुश का जीमूतवाहन बनाकर पानी में उसे डाल बांस के पत्ते, चंदन, फूल आदि से पूजा करने पर वंश की वृद्धि होती है।

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व्रत महत्व
कृष्ण अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जिमूतवाहन की पूजा करती हैं। इस दिन उपवास रख जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जिमूतवाहन की पूजा करती हैं व कथा श्रवण करती हैं, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। प्राय: इस व्रत को स्त्रियां करती हैं। प्रदोष काल में व्रती जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा की धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि से पूजा-अर्चना करते हैं। मिट्टी व गाय के गोबर से चील व सियारिन की प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है। 

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