चार दशक पुराने नियम के अनुसार, कंपनी गठित होने से तीन साल के भीतर राजनीतिक चंदा देने पर प्रतिबंध है। 1985 में संसद ने धारा 293ए में संशोधन किया, जिससे कुछ शर्तों के अधीन फर्मों द्वारा राजनीतिक चंदा पर प्रतिबंध हटा दिया गया। शर्तों में से एक यह थी कि फर्मों का स्वामित्व सरकार के पास नहीं होना चाहिए और तीन साल से कम पुराना नहीं होना चाहिए। इस खंड को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 के तहत बरकरार रखा गया था।
वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 154 में धारा 182 में जब संशोधन किया गया तो चुनावी बॉन्ड की शुरुआत से ठीक पहले इस खंड को फिर से बरकरार रखा गया था। हालांकि, संशोधन ने उस पहले प्रावधान को हटा दिया जिसके द्वारा किसी कंपनी द्वारा चंदे में दी गई राशि उसके पिछले तीन वित्तीय वर्षों के दौरान उसके औसत शुद्ध लाभ का 7.5% तय किया गया था। कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को पहले तीन साल में चंदा देने पर रोक जारी रही।
तब शुद्ध लाभ 7.5% का प्रावधान हटाया गया तब चुनाव आयोग ने चेतावनी दी थी कि इससे शेल कंपनियों के माध्यम से काले धन का उपयोग हो सकता है।
हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि 2022-24 के बीच कम से कम 55 कंपनियों ने अपने शुद्ध मुनाफे के अधिकतम 7.5 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा चंदा राजनैतिक दलों को दिया है। इनमें से 2023-24 में पांच और 2022-23 में आठ कंपनियां ऐसी भी हैं जिनका शुद्ध मुनाफा शून्य था या वे घाटे में थीं, तब भी उन्होंने मोटा चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये राजनैतिक दलों को दिया।
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नियम तोड़कर चंदा देनेे वाली कंपनियां