सोमवार के अखबारों में प्रकाशित भारत के दो
समाचारों ने सभी का ध्यान खींचा है। एक तो केरल के कोचि में ब्रेन डेड हो चुके
व्यक्ति के परिवार ने उसके अंगों का दान किया। फलस्वरूप बारूदी सुरंग को हटाने मे
दोनों हाथ गंवा चुके अफगानिस्तान सेना के कैप्टन अब्दुल रहीम को प्रत्यारोपण सर्जरी
से फिर से हाथ मिल गए। दूसरी घटना न्यूजीलैंड के ऑकलैंड की है। जिसमें सिख युवक
हरमन सिंह ने दुर्घटना में घायल एक बच्चे को अस्पताल पहुंचाने के दौरान, उसका बहता
खून रोकने के लिए अपनी पगड़ी को पट्टी के तौर पर इस्तेमाल किया। दोनों ही घटनाओं ने
भारतीय संस्कारों की वह मिसाल पेश की जो यह साबित करती है जिसकी भी जड़ें इस मिट्टी
से जुड़ी हैं, वह इंसानियत को सबसे ऊपर मानता है। जाति, संप्रदाय और यहां तक कि देश
की सीमाओं के बंधन भी मानवीयता के आगे मायने नहीं रखते। मानवीय संवेदना के इन
उदाहरणों पर स्पॉटलाइट में पढिए जानकारों की राय…
इस संतुष्टि का कोई मोल
नहीं होता
डा. सुब्रामणिय अय्यर हाथ प्रत्यारोपण करने वाले भारत के
एक मात्र डॉक्टर
अफगानिस्तान की सेना का यह अफसर कैप्टन अब्दुल रहीम लंबे समय से
इंटरनेट के माध्यम से हाथ ट्रांसप्लांट कराने के लिए कोई अच्छा डॉक्टर खोज रहे थे।
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति उनको जर्मनी भेजना चाहते थे। इसी बीच अब्दुल रहीम को पता
चला कि भारत में भी इस तरह का कोई ट्रांसप्लांट हुआ है। इसी को खोजते हुए वे दिल्ली
आए थे। दिल्ली में हमारे यहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके एक डॉक्टर अदीश्वर
शर्मा ने उन्हें मेरे बारे में बताया। वहां से वे खोजते हुए कोचि पहुंचे।
अब्दुल
रहीम का ऑपरेशन काफी सफल रहा है। इस तरह के ऑपरेशन पूरी दुनिया में अभी तक मुश्किल
से 80-90 ही हुए होंगे। इस तरह के ऑपरेशन करना एक डॉक्टर के रूप में बहुत संतोष की
बात होती है। पहले-पहल यह ऑपरेशन हमारे हॉस्पिटल में हुआ, यह सिर्फ संयोग नहीं है।
इस तरह के ऑपरेशन करने के पीछे सिर्फ पैसा कमाने की भावना नहीं होती।
मुख्य रूप से
मानव कल्याण और मेडिकल साइंस में कुछ बेहतर करने की प्रेरणा ही इसके पीछे प्रमुख
होती है। ऎसा नहीं है कि हमारे अस्पताल में हम लोगों को वेतन नहीं मिलता। पर यहां
हम सिर्फ वेतन के लिए काम नहीं करते और काम करते समय कभी घड़ी नहीं देखते। जरूरत
पड़ने पर हमारे यहां डॉक्टर और दूसरा स्टॉफ रात भर डयूटी करते हैं। ऎसा इसलिए संभव
है, क्योंकि हमारे यहां सिर्फ पैसा काम करने की प्रेरणा नहीं है। इस संस्था का पूरा
जीवन दर्शन और कार्य शैली ही मानव कल्याण से अभिपे्ररित है। यहां कार्य करने में
आनंद आता है।
आधी लागत में सर्जरी
हमारे अस्पताल में इस तरह का ऑपरेशन करने
में कुल लागत लगभग 15 लाख आती है। इसमें लगभग आधी लागत अस्पताल चुकाता है और आधी
लागत मरीज को चुकानी होती है। इस तरह के ऑपरेशन रोज-रोज नहीं होते। इनको करने के
पीछे लंबी तैयारी और बड़ी संख्या में डॉक्टरों की एक टीम की जरूरत होती है। अब्दुल
रहीम का ऑपरेशन करने में 20 डॉक्टरों तथा 10 एनिस्थिया सर्जन्स की एक पूरी टीम पूरे
15 घंटे तक सर्जरी कार्य में शामिल थी।
इसके अलावा 30 और सहयोगी स्टॉफ की टीम भी
सर्जरी में शामिल थी। तकनीकी रूप से यह ऑपरेशन कितना चुनौतीपूर्ण था, इसको इससे
समझा जा सकता है कि इस ऑपरेशन में एक साथ चार आपॅरेशन थियेटर पर काम किया जा रहा
है। कुल तीस स्पॉट थे, जहां पर ऑपरेट किया जाना था। जब तक सर्जरी चलती रहती है, तब
तक मुश्किल से कुछ मिनटों के लिए ऑपरेशन की टीम में लगे डॉक्टरों को बाहर जाने का
मौका मिलता है। पर जब ऑपरेशन पूरा हो जाता है, तो उस क्षण के आनंद की किसी और आनंद
से तुलना नहीं की जा सकती। यह पूरी टीम के लिए अद्भुत संतोष का क्षण होता है।
ऑपरेशन के बाद अब्दुल रहीम की चेहरे पर जो खुशी थी वो भी अतुलनीय है।
10 माह में
होगा ठीक
अब्दुल रहीम का ऑपरेशन अपेक्षा के अनुरूप रहा है। अभी उनका हाथ 30-35
प्रतिशत तक सक्रिय है। पर अभी उन्हें लगभग 10 माह तक अस्पताल के करीब ही रहना होगा।
इस बीच उनकी फिजियोथेरेपी चलती रहेगी। पूरी तरह ठीक होने के बाद उनका हाथ लगभग
90-95 प्रतिशत तक सामान्य रूप से सक्रिय हो जाएगा।
हमें इस बात की खुशी है कि हम
भारत में इस तरह का पहला और दूसरा ऑपरेशन करने में सफल रहे हैं। इस सफलता को श्रेय
मैं अपने शिक्षण संस्थान ऑल इंडिया इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साइंस, दिल्ली को भी देना
चाहूंगा, जहां से मैंने मॉस्टर ऑफ सर्जरी की डिग्री ली है। (डा. अय्यर, अमृता
इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज, कोचि, केरल में प्लास्टिक एंड रीकंस्ट्रक्टिव
सर्जरी विभाग के अध्यक्ष हैं।)
भारत में पहला सफल प्रत्यारोपण
भारत में
पहला सफल हाथ प्रत्यारोपण 13 जनवरी 2015 को डॉ. सुब्रामणिय अय्यर के नेतृत्व में
अमृता इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसिस, कोचि में किया गया था। इससे तीन वर्ष पूर्व
एक व्यक्ति रेल दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गंवा बैठा था। अपने इलाज के लिए उसने
यहां संपर्क साधा लेकिन उसे हाथ दान में नहीं मिले। 12 जनवरी 2015 को एक सड़क हादसे
में ब्रेनडेड घोषित हो चुके 24 वर्षीय युवा के परिजन उसे ऑर्गन सहित हाथ दान करने
को राजी हुए। दोनों के ब्लड ग्रुप का मिलान किया गया। 20 डॉक्टरों की टीम ने 16
घंटे में इस ऑपरेशन को अंजाम दिया जो सफल रहा।
हाथ प्रत्यारोपण का सफर
1964 में पहली बार दक्षिण अमरीका में हाथ प्रत्यारोपण करने का प्रयास किया गया,
पर यह विफल रहा। कई सालों तक विफलता के बाद 1999 में अमरीका के ल्युस्विले स्थित
“कुत्ज एंड एसोसिएट्स हैंड केयर सेंटर” में मैथ्यु स्कॉट नाम के व्यक्ति के दाहिने
हाथ का सफल प्रत्यारोपण किया गया। इसी वर्ष चीन के ग्वांगछोउ में डिपार्टमेंट ऑफ
ऑर्थोपेडिक्स एंड ट्रोमेटोलॉजी, नंगफंग अस्पताल में भी एक व्यक्ति का सफल
प्रत्यारोपण किया गया। वर्ष 2000 में फ्रांस में पहला (दोनों हाथ) सफल प्रत्यारोपण
किया गया। इसके बाद दुनिया के कई देशों में सफल हाथ प्रत्यारोपण हुए
हैं।
धर्म से बड़ी है इंसानियत
दिलजीत सिंह, सचिव, शिरोमणि गुरूद्वारा
प्रबंधक समिति, अमृतसर
सिख धर्म का सिद्धांत लोकसेवा ही है। सिख धर्म पूरी
दुनिया में सेवा के लिए ही जाना जाता है। साहिब गुरू गोविंद सिंह जी तो उन लोगों
में से रहे हैं जो दुश्मनों की सेवा करने में भी विश्वास रखते थे। उन्होंने युद्ध
में घायल दुश्मन के सैनिकों और अपने सैनिकों के बीच कोई अंतर नहीं किया। उन्होंने
सेवा के मामले में कोई भेदभाव नहीं रखने का संस्कार दिया। समान रूप से घायलों की
मल्हम-पट्टी की जाती थी और पानी पिलाया जाता था। सिख धर्म सभी जाति, पंथ आदि से
निरपेक्ष रहकर, ऊंच-नीच का भेदभाव ना करते हुए समान रूप से मदद करने वालों का धर्म
है।
संस्कार में है सेवा
यह सिख समाज को गुरू की बख्शीश है कि उन्हें दूसरों
की सेवा के लायक बनाया है। इस आधार पर जरूरतमंदों की सेवा करना हर सिख का पहला फर्ज
है। यही वजह है कि शिरोमणि प्रबंधक कमेटी की ओर से समाज के पीडित समुदाय के लिए
सेवाएं दी जाती हैं। कैंसर पीडितों के अस्पताल हो, गरीबों के लिए भोजन की बात हो तो
सिख समुदाय हमेशा से ही आगे ही रहता है।
शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति अपनी ओर
से शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान करती रहती है। जम्मू-कश्मीर में आई
बाढ़ के समय भी शिरोमणि प्रबंधक कमेटी की ओर से लगातार पौने चार महीने तक पीडितों
की सेवा की गई। उस समय भी शिविर लगाकर जरूरतमंदों को आवश्यक चीजें उपलब्ध कराई गईं।
केवल भोजन और सूखे राशन की ही नहीं बल्कि कपड़े और बिस्तरों की व्यवस्था बिना किसी
भेदभाव के, समिति की ओर की गई। लोगों को उनके मकान फिर से बनवाने के लिए नकद राशि
की व्यवस्था भी की गई। हाल ही में नेपाल में आई भूकंप की आपदा के समय पर भी शिरोमणि
प्रबंधक समिति की ओर से केवल सूखा राशन की व्यवस्था ही नहीं की गई बल्कि लोगों के
रहने के इंतजाम भी किये जा रहे हैं। जन सेवा सिखों के संस्कार में है। वे जाति, पंथ
के भेदभाव से दूर रहकर सेवा करते हैं।
आन-बान-शान है पगड़ी
जहां तक पगड़ी का
सवाल है तो इस मामले में सिखों की पगड़ी कुछ अलग है। पगड़ी तो बहुत से लोग लगाते
हैं और उनके लिए भी पगड़ी उनकी आन-बान-शान का प्रतीक होती है लेकिन सिखों के लिए यह
दस्तार है। इसमें सिख अपने ही हाथों का इस्तेमाल करता है। यह केवल निजी मामला नहीं
है बल्कि गुरू की बख्शी बख्शीश का मामला है।
पांच ककारों में शामिल है पगड़ी। हकीकत
में यह तो संस्कार है सिख समुदाय का। यह पहचान है दुनिया में सिखों की। लेकिन, अकसर
देखने और सुनने में आता है कि देश के बाहर कई बार सिखों को उनके पांच ककारों को साथ
रखने में रोकटोक होती है। खासतौर पर विदेशों में पढ़ाई के दौरान सिख बच्चों को
पगड़ी हटाने या कृपाण को घर पर ही रखने के लिए बाध्य किया जाता है। ऎसा करना गलत है
और ककारों को जबरन हटाने या पाबंदी लगाये जाने को सिख बर्दाश्त नहीं करते हैं। कोई
प्यार से भी इसे हटाने के लिए कहे तो भी सिखों के लिए बर्दाश्त से बाहर की बात होती
है। सिखों के लिए यह आन-बान-शान की बात है।
रखी पगड़ी की लाज
हाल ही में एक
घटना सुनने को मिली है कि न्यूजीलैंड में एक सिख हरमन सिंह ने घायल बच्चे की मदद
की। उनसे बच्चे का बहता खून बर्दाश्त नही हुआ तो उन्होंने अपनी पहचान और आन-बान-शान
की प्रतीक पगड़ी को सिर से उतारकर पट्टी के तौर पर उसे बांध दी। एकाएक लग सकता है
कि यह सिख समुदाय में आस्था रखने वाले के लिए यह उचित ना हो लेकिन हरमन ने ऎसा करके
न केवल बच्चे की बल्कि सिख समुदाय के संस्कारों की भी रक्षा की है क्योंकि किसी की
जान पर आ बनी हो तो पगड़ी तो क्या सिख सारे जाति, पंथ, ऊंच-नीच भुलाकर सेवा करता
है। पगड़ी उतारकर पट्टी के तौर पर इस्तेमाल करके हरमन ने सिख होने का सच्चा सबूत ही
दिया है।
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