भारतीय राजनीति में मौजूद अनेक विसंगतियों का हल तलाशने के बावजूद कानून बनाने वाली हमारी संसद और इसमें बैठने वाले राजनेता राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच होने वाले टकराव का समाधान खोजने में नाकाम रहे हैं।
संविधान में हालांकि राज्यपालों से लेकर राज्य सरकारों और मुख्यमंत्रियों से लेकर मंत्रियों तक के अधिकार और कर्तव्यों का खुलासा है, बावजूद इसके टकराव कहीं न कहीं नजर आ ही जाता है। दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच अक्सर होने वाला टकराव तो बच्चों का खेल लगने लगा है।
हर मुद्दे पर खींचतान मानो दिल्ली की राजनीति का स्थायी अंग बन चुकी है। टकराव भी ऐसा कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है। इसे अधिकारों की लड़ाई भी माना जा सकता है और वर्चस्व की जंग भी।
लेकिन सच्चाई यही है कि इस टकराव ने दिल्ली की जनता को परेशानी के अलावा कुछ नहीं दिया है। ताजा मामला असम का है, जहां मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने राज्यपाल पी.बी. आचार्य को हटाने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा है।
आचार्य के पद पर बने रहने से संसदीय प्रणाली के कामकाज में कठिनाई आने का हवाला देते हुए उन्होंने राजभवन के भाजपा कार्यालय में तब्दील होने तक की शिकायत कर डाली है। असम में सरकार कांग्रेस की है तो राज्यपाल भाजपा विचारधारा के हैं।
केन्द्र और राज्य में एक ही दल की सरकार हो तो टकराव के आसार कम रहते हैं लेकिन सरकार अलग-अलग दलों की हो तो टकराव के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता।
मुख्यमंत्री तो राजनीतिज्ञ होता ही है लेकिन राजभवनों से भी प्राय: राजनीति होते हुए देखी जाती है। कुछ मौकों पर राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि की बजाय राजनेता की तरह काम करते नजर आते हैं। राजभवन राजनीति के केन्द्र न बनें, इसकी जिम्मेदारी सभी की है।
तमाम राजनीतिक दलों से लेकर प्रधानमंत्री, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की। संवैधानिक पद की मर्यादा का उल्लंघन न हो, ये सुनिश्चित करना कठिन नहीं है। जरूरत है तो हर मुद्दे को राजनीतिक चश्मे से देखने का नजरिए बदलने की।
असम के मुख्यमंत्री के राष्ट्रपति को लिखे पत्र के हर बिंदु की पड़ताल की जानी चाहिए और लगे कि राज्यपाल संसदीय प्रणाली के कामकाज में बाधक बन रहे हैं तो इसका समाधान शीघ्र किया जाना चाहिए। बेवजह का टकराव सरकारों के अच्छे कामकाज पर भी सवालिया निशान खड़े कर देता है।
राज्यपालों के सम्मेलन में भी इन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है ताकि लोकतंत्र पर बार-बार लगने वाले सवालिया निशान को टाला जा सके।
राजभवन राजनीति के केन्द्र न बनें, इसकी जिम्मेदारी सभी की है। तमाम राजनीतिक दलों से लेकर प्रधानमंत्री, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की। संवैधानिक पद की मर्यादा का उल्लंघन
भी न हो।