इश्तिहारों की इबारत कुछ यूं होती- एक बार मिल तो लें। आप निराश न हो। आपके हर मर्ज का इलाज हकीम साहब के पास है। निसन्तानता से परेशान हैं। अपने आप में ताकत कम पाते हैं तो जरूर मिलें। फायदा न होने पर दाम वापस।
मजे की बात यह कि सफेद दीवार पर बड़े-बड़े काले हर्फों से लिखे इन जानदार इश्तिहारों को पढ़कर बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ कर शानदार लोग हकीम साहब के पास आते। उन्हें ऐसी बीमारियां होती कि जिनकी चर्चा वे एकान्त में बैठे हकीम साहब से ऐसी फुसफुसाहट के साथ करते कि उनके होठों की बुदबुदाहट सिर्फ हकीम लुकमानी ही समझ पाते।
मरीज को वे सबके सामने देखते और मरीजा को पर्दे के भीतर। उनके मरीजों में चारों धर्मों और सातों जातों के लोग होते। अलबत्ता उसे समाजवादी इसलिए नहीं कहा जा सकता था कि हकीम साहब जिन महागुप्त बीमारियों का इलाज करते वे गरीबों, मजदूरों और किसानों के तो होती ही नहीं थी इसलिए उनसे शाही इलाज कराने सिर्फ पूंजीपति लोग आते।
एक बार हमने भी अपने शरीर में कुछ कमजोरी महसूस की सो हमारा दोस्त राधे हमें हकीम साहब के पास ले गया। हकीम साहब ने हमें जो दवा दी उसके पैकेट पर लिखा था- फायदा न होने पर पैसा वापस।
छह महीने में भी फायदा न होने पर हम हकीम साहब से पैसे वापस लेने गए तो हंस के बोले- बर्खुरदार! यहां लिखा है फायदा न होने पर पैसे वापस। तुम्हें बेशक न हुआ हो पर दवा बेचने पर मुझे तो फायदा हुआ ही है। हकीम लुकमानी ने हंसते-हंसते हमें बैरंग लौटा दिया। तब हमें फायदे का कायदा समझ आया।
व्यंग्य राही की कलम से