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अवसाद की ओर धकेलता एकाकीपन

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ विश्व के सर्वाधिक अवसादग्रस्त देशों में एक है, और उससे भी पीड़ाजनक पहलू मानव संसाधन के वे आंकड़े हैं जो यह बताते हैं कि हर चार में से एक महिला इस रोग से पीडि़त है।  

Apr 11, 2015 / 03:42 am

Kamlesh Sharma

वि श्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ विश्व के सर्वाधिक अवसादग्रस्त देशों में एक है, और उससे भी पीड़ाजनक पहलू मानव संसाधन के वे आंकड़े हैं जो यह बताते हैं कि हर चार में से एक महिला इस रोग से पीडि़त है।

दरअसल महिलाएं परिवार की वह आधार स्तम्भ तो हैं जिनके प्रेम, त्याग और समर्पण से घर का प्रत्येक सदस्य बंधा रहता है, परन्तु संपूर्ण परिवार उस आधार स्तम्भ को इसलिए अस्वीकार कर देते हैं क्योंकि, स्त्री का अस्तित्व उनके लिए मायने ही नहीं रखता और यही कारण है उसकी शारीरिक एवं मानसिक पीड़ाएं उपहास मात्र बनकर रह जाती हैं। 

आधुनिक परिवारों ने स्त्री के कंधों पर घर की चारदीवारी से बाहर निकल ‘अर्थÓ अर्जन का बोझ तो डाल दिया परन्तु घर के दायित्वों को साझा करने कोवे अपने संस्कारों के विरुद्ध मानना नहीं भूले। एक सर्वे के मुताबिक भारतीय पुरुष प्रतिदिन 19 मिनट ही घरेलू काम करते हैं जबकि स्लोवेनिया में यह 144 मिनट और अमेरिका में 82 मिनट हैं। 

एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि वह स्त्रियां जो प्रत्यक्ष अर्थार्जन से नहीं जुड़ी हैं, उनके प्रति अवहेलना, उनके घरेलू श्रम को मान न देना, उनके भीतर ग्लानि की भावना को जन्म देता है जो अवसाद का प्रथम चरण है। बात सिर्फ भारतीय स्त्रियों तक ही सीमित नहीं है। यह किशोरों से लेकर वृद्धों तक की समस्या है। 

विश्वभर में 13 से 44 वर्ष के आयुवर्ग में अवसाद जीवनकाल घटाने वाला दूसरा सबसे बड़ा कारण है और लोगों में विकलांगता पैदा करने वाला चौथा बड़ा कारण। अवसादग्रस्त लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में हर वर्ष तकरीबन दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें बड़ी संख्या इस बीमारी के शिकार लोगों की होती है। 

प्रश्न यह उभर कर आता है कि आखिर यह अवसाद क्यों? पिछले दो दशकों में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आमूलचूल परिवर्तन आया है। सफलता के मायने बदल चुके हैं। 

कम समय में अधिक से अधिक आर्थिक सुदृढ़ता पाने के लिए समाज का हर तबका दिन-रात की सीमाओं को लांघते हुए काम में जुटा है। उसे यह समझ नहीं आता कि किसे वह अपना दोस्त माने, किस पर विश्वास करे और यह डर उसे ‘अकेलाÓ कर देता है। इंडियन साइक्रियाट्रिक सोसायटी की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि ‘एकांतÓ अवसाद का प्रमुख कारण है। 

मनुष्यता, अपनापन और सहानुभूति जैसे मनोभावों को तथाकथित आधुनिक समाज ने स्क्रैप कह कर नकार दिया है। महानगरीय संस्कृति में विलुप्त होती सामाजिक भावनाओं ने व्यक्ति को भीतर से खोखला कर दिया है। 

हां यह जरूर है कि सोशल नेटवर्क में खुद को झोंकने वाली महानगरीय संस्कृति, अपने परिवार और पड़ोस को समय देना, पुरातन सोच मानती है। इसमें दो राय नहीं है कि ‘पदÓ और ‘प्रतिष्ठाÓ सफल व्यक्ति की पहचान के साथ जुड़े है, पर इसका कदापि तात्पर्य यह नहीं कि सफल व्यक्ति को सामाजिक और मानवीय गुणों को तज देना चाहिए। 

यदि वह ऐसा करता है तो वह बिल्कुल ‘अकेलाÓ रह जाएगा और यही अकेलापन ‘अवसादÓ की ओर पहला कदम है। दिल्ली साइकेट्री एसोसिएशन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चुनौतियां बढ़ी हैं। 

बढ़ते मानसिक रोगियों की अपेक्षा देश भर में कुल 84 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं जो कि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिहाज से बहुत कम हैं। 

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