किसी वक्त रहस्य का संसार रचते थे सितारे। आज उनकी गोपनीयता कुछ भी नहीं। रहस्य सारे उजागर हो जाएं, जिज्ञासाएं सब शांत होती जाएं तो चमत्कार की चमक उतर जाती है। आम बनते जा रहे सितारों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर लेना चाहिए। बॉलीवुड में सितारा हैसियत पाना सितारे तोड़ लाने जितना ही मुश्किल है। प्रचंड प्रतिभा के विश्वास को खीसे में लिए सहस्त्रों लोग लौहद्वार से सिर टकराते रहते हैं। बस एकाध के लिए वह खुलता है और आप कुछ बनते हैं। फिर मिलती है इक तलवार जिसकी धार पर चलते हुए उस हैसियत को बरकरार रखने का करतब भी आपको दिखाना होता है। ऐसे में हर सफल के भीतर से एक प्रचंड अहम स्वत: जनम लेता है जो स्ट्रगल-काल के अपमानों, दौड़-धूप, भूख, अभावों आदि पर मरहम करता है। चौतरफा सम्मान मिलता रहे तब तक विनम्र मुस्कान तारी रहती है, छेड़ दिए जाने पर अहम के पुतले की फुफकार श्रवणीय हो सकती है। पर ‘अब’ यह नौबत आ नहीं सकती। फुफकार विनम्र मुस्कान बन कर स्क्रीनों पर पसरती है। खारे-कड़वे घूंट पी कर भी, कोई भी सितारा अब मुंह नहीं बिचका सकता क्योंकि सोशल मीडिया के फॉलोअर्स करोड़ों की तादाद में हैं। वे पसंद भी करते हैं तो निगहबान भी हैं। आपकी छवि का बंटाधार आपका एक गलत शब्द कर सकता है। आमिर खान एक बार देश को न रहने लायक बताने के बाद अब तक दाग साफ करने में लगे हैं। यद्यपि, ‘सितारात्मकता’ प्रत्यक्ष झलक में अब भी कायम है। सितारे भले सोशल मीडिया में ‘उतारे’ जाते हों, इन्हें साक्षात देखने की जबरदस्त इच्छा जस की तस है और वह उनमें फिर-फिर खास हो जाने का ईंधन भरती रहती है।
लब्बोलुआब यह है कि दौर अच्छा है। कोई भी सितारा हो, स्वेच्छाचार पर सवालों की बौछार को रोकना अब उसके वश में नहीं है। कल्पनातीत वैज्ञानिक तरक्की और बौद्धिक-सामाजिक-आर्थिक उत्थान के दम पर मनुष्य जाति एक बेहतर दौर में विराजमान है। गुजरे जमाने के गुण गाने का फैशन अनंत काल तक रहने वाला है, पर मौजूदा समय की अच्छाइयों को अंतस में पिरोकर भी आगे बढ़ा जा सकता है। और क्या चाहिए भला!