देवों से आदान-प्रदान
नई दिल्लीPublished: Mar 11, 2023 06:20:29 am
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : गीता कहती है (3/11) कि जो जिस देवता की भावना करता है, वही देवता भी उसकी भावना करते हैं। परस्पर भावाविष्ट होकर एक-दूजे का कल्याण करते हैं। सब देवमय हैं, भावनाएं भी देवीशक्ति सम्पन्न हैं। जैसा हम दूसरों के लिए सोचते हैं, वैसा स्वयं का भी होता है। अत: सारे कर्म देवता के उद्देश्य से करें-अच्छे ही होंगे... 'शरीर ही ब्रह्माण्ड' शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-


शरीर ही ब्रह्माण्ड : देवों से आदान-प्रदान
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। (गीता 3.11)
अर्थात्-यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और देवता तुम लोगों को उन्नत करें। एक-दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो जाओ।
हमारा जगत स्थूल है। देव जगत सूक्ष्म है। यज्ञ के द्वारा दोनों एक-दूसरे को उन्नत करें, विकसित करें, ऊपर उठाएं। कृष्ण की इस बात को हम समझें, इसके लिए यज्ञ को समझना पड़ेगा। कैसे यज्ञ स्थूल और सूक्ष्म दोनों से जुड़ा रहता है, कैसे कर्म के फलों को प्रभावित करता है। 'यज्ञ: कर्म समुद्भव:' (3.14) यज्ञकर्म से उत्पन्न होता है। यज्ञ ही विष्णु है। फलाशा और आसक्ति छोड़कर विष्णु के लिए यज्ञ करना बन्धन कारक नहीं है। इसी को यथार्थ कर्म कहा है। यज्ञ से ही संस्कार उत्पन्न और स्थित रहता है। यज्ञ ही संसार चक्र का परिचालन करता है।