आज भाषा और घर से दूर भागने का युग है। उधार के ज्ञान से जीवन नहीं चलता। समझ तो केवल मातृभाषा से ही पकड़ में आती है। तमाम शोध भी यह बता चुके हैं कि अपनी भाषा में शिक्षा से ही बच्चे का सही विकास संभव है। वह इसलिए भी क्योंकि सदियों का ज्ञान उसी भाषा में भरा रहता है। देश के तमाम हिस्सों में मातृभाषा के जरिए ही ज्ञान का प्रसार अधिक तेजी से हो सकता है।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के किसी भी इलाके में चले जाइए मातृभाषा में संवाद करते लोगों में अलग ही ज्ञानबोध दिखता है। इन भाषाओं पर हमारे ग्रामीण अंचल में न हिन्दी का प्रभाव पड़ा, न अंग्रेजी का। लेकिन शिक्षा के नाम पर पूरी की पूरी पीढ़ी पराई हो गई। राजस्थानी को ही लें। नई पीढ़ी को राजस्थान का ज्ञान तो शून्य जैसा है। दूसरे प्रदेशों में भी कमोबेश हाल यही है। पता नहीं वह फिर राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी, मालवी या अन्य क्यों है? न गांव के व्यक्ति का ज्ञान शिक्षा से समृद्ध हुआ, न विकास का स्वरूप किसी के समझ में आया। संपूर्ण जीवन के कार्यकलाप प्रश्नों के घेरे में घिर गए। मातृभाषा में कुछ समझाया भी नहीं। बस, नकल हो रही है।
राजस्थानी ही नहीं, देश के विभिन्न अंचलों की कई भाषाओं को संवैधानिक दर्जा मिलने का इंतजार है। यह दुर्भाग्य कहा जाए अथवा राजनेताओं की चालबाजी! नासमझी भी हो सकती है और अनिवार्यता की सूची से बाहर भी। अधिकारी स्वयं पराए ज्ञान पर टिके हैं और पराधीनता (नौकरी) को ही सुख मानते हैं। उन्हें न तो माटी की समझ है न ही माटी से जुड़ाव। अंग्रेजी के आगे मातृभाषा का अस्तित्व ही नहीं स्वीकारते। एक बात निश्चित है-बाहरी ज्ञान को जब तक मातृभाषा में नहीं समझाया जाएगा, यह ज्ञान उस प्रदेश का हित कभी नहीं करेगा। बाहरी लोग, बाहरी भाषा में बाहरी ज्ञान थोप रहे हैं। राजस्थान में तो स्वयं मुख्यमंत्री के क्षेत्र में इस राजस्थानी भाषा पर सर्वाधिक कार्य हुआ है। मान्यता देने की आवाज भी वहीं से बुलंदी पर है। उन्होंने विजयदान देथा, सीताराम लालस जैसे राजस्थानी भाषा के लाड़लों को राष्ट्रीय सम्मान भी दिलवाए हैं। फिर भी सरकार की समझ में ये नहीं आता कि बिना मातृभाषा के संविधान के तीनों पाए जनता से कभी नहीं जुड़ सकते।
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पराई भाषा बोलने वाली सरकार तो आम ग्रामीण के लिए पराई ही होती है। सत्तर वर्ष की आजादी के बाद हम पराई भाषा में जीने को मजबूर हैं, और कोई शर्मिन्दा नहीं होता। व्यक्ति का मूल ज्ञान ही लुप्त हो जाएगा। नई पीढ़ी तो इस दृष्टि से कंगाल ही हो जाएगी। उधर, अन्न और दूध विष बन गया, पेड़-पशु लुप्त होने लगे। युवा गांव में रहने को तैयार नहीं। यह सब मातृभाषा के अभाव से हो गया। जनता की तो भागीदारी मातृभाषा से ही संभव है। आज जनता एक ओर अलग-थलग पड़ गई, सरकारें जनता से अलग अपनी भाषा में विकास कर रहीं है। प्रकृति के ढांचे को तितर-बितर होने से भी केवल मातृभाषा ही रोक सकती हैं, सरकारें नहीं।
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आज की पहली आवश्यकता है, पाठ्यक्रम में भाषा, भूगोल, इतिहास, कृषि, पशुधन, परिधान, अन्न जैसे मूलभूत विषयों को जोड़ा जाए। भाषा में कहावतें और मुहावरों के साथ स्थानीय संतों के ज्ञान को मान्यता मिलनी चाहिए। प्रश्न मातृभाषा के भौतिक अस्तित्व का नहीं है। प्रश्न करोड़ों लोगों को मूल में विकास की धारा से जोडऩे का है। आज तक सरकारों ने इस दृष्टि से आम आदमी का सम्मान नहीं किया है। स्कूल शिक्षा से ही मातृभाषा की तरफ ध्यान नहीं देने का मतलब है- बच्चों को जड़ों से काटना। सरकारों को इस दुष्प्रवृत्ति को रोकना ही होगा।