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Patrika Opinion : खुलने लगी हैं नेताओं की निष्ठा की परतें

locationनई दिल्लीPublished: Dec 28, 2021 11:11:50 am

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Patrika Desk

देश की राजनीति में दलबदल और गठजोड़ का सिलसिला पुराना है, लेकिन हाल के दौर में जो हो रहा है वह विशुद्ध रूप से सौदेबाजी के अलावा और कुछ नहीं। हर किसी को सिर्फ जीत चाहिए और इसके लिए वह किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार है।

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पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान भले ही अभी नहीं हुआ हो, लेकिन राजनीतिक दलों और नेताओं की विचारधारा के नाम पर निष्ठा की परतें खुलने लगी हैं। पांच साल तक एक-दूसरे को कोसने वाले दल और उनके नेताओं ने चुनाव जीतने के लिए नए-नए समझौते करने शुरू कर दिए हैं। पांच साल पहले की राजनीतिक अदावत कहीं टूट चुकी है तो कहीं टूटने की कगार पर है। पुराने गठजोड़ों की जगह नए गठजोड़ की कहानी लिखने का काम इन दिनों जोरों पर है।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश पर नजर डालें तो पांच साल पहले वाली तस्वीर अब नजर नहीं आ रही है। चुनावी वैतरणी पार करने के लिए सभी दल लाभ-हानि के जोड़-तोड़ में जुटे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लडऩे वाली कांग्रेस इस बार अकेले लडऩे की तैयारी में है। ढाई साल पहले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए एकजुट हुए सपा और बसपा भी अलग-अलग सहयोगियों की तलाश में जुटे हैं। पंजाब में साढ़े चार साल तक अमरिंदर सिंह सरकार को कोसने वाली भाजपा अब उन्हीं के साथ मिलकर चुनाव लडऩे को बेचैन नजर आ रही है। अकाली दल के साथ तीन दशक तक मिलकर चुनाव लडऩे वाली भाजपा आज अपने पुराने सहयोगी पर रह-रहकर निशाना साध रही है।

 

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गोवा की गिनती भले ही छोटे राज्यों में की जाती हो, लेकिन राजनीतिक उथल-पुथल के मामले में यह राज्य बड़े-बड़े राज्यों को पीछे छोड़ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी कांग्रेस यहां बगावत के संकट से जूझ रही है। पिछले चुनाव में जीते 15 विधायक पार्टी का दामन छोड़कर दूसरे दलों की शरण में जा चुके हैं। साढ़े चार साल तक भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगने वाली महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी इस बार तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता हथियाने के प्रयासों में जुटी है।

 

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चुनाव की घोषणा होने तक नए समीकरण बनने की पूरी-पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। हर दल और हर नेता को सत्ता में भागीदारी चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। ये तो बात चुनाव पूर्व गठबंधन की है। चुनाव बाद की तस्वीर में नए सिरे से नए रंग देखने को मिल सकते हैं। देश की राजनीति में दलबदल और गठजोड़ का सिलसिला पुराना है, लेकिन हाल के दौर में जो हो रहा है वह विशुद्ध रूप से सौदेबाजी के अलावा और कुछ नहीं। हर किसी को सिर्फ जीत चाहिए और इसके लिए वह किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार है। यह जानते हुए भी कि सामने वाला पता नहीं कब उसका साथ छोड़ जाए?

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