scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड : संतति यज्ञ से ब्रह्म विवर्त | gulab kothari articles | Patrika News
ओपिनियन

शरीर ही ब्रह्माण्ड : संतति यज्ञ से ब्रह्म विवर्त

सिद्धान्त रूप से पुरुष का स्त्री अंश तथा स्त्री का पुरुष अंश अपूर्ण होता है। अत: कोई अकेले सृष्टि निर्माण में सक्षम नहीं है। दाम्पत्य भाव दोनों की पूर्णता का मार्ग है।सन्तान प्राप्ति का कारण स्त्री-पुरुष का मिथुन कर्म मात्र ही नहीं है बल्कि योषा-वृषा का सम्बन्ध मूल है। यदि योषा-वृषा का मेल न हो, या दोनों में से एक प्राण का हनन हो जाए तो मात्र शरीर सम्बन्ध से सन्तान पैदा नहीं हो सकती। योषा-वृषा के मेल से, बिना शरीर सम्बन्ध के भी सन्तान उत्पन्न हो सकती है। टेस्ट ट्यूब बेबी इसका उदाहरण है।

May 29, 2021 / 08:30 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : संतति यज्ञ से ब्रह्म विवर्त

शरीर ही ब्रह्माण्ड : संतति यज्ञ से ब्रह्म विवर्त

गुलाब कोठारी, (प्रधान संपादक पत्रिका समूह)

द विज्ञान में पुरुष को आत्मा कहा गया है। ब्रह्म के विवर्त (विस्तार) के लिए उसी की दो इकाइयां बन जाती हैं-नर और नारी। प्रजा की उत्पत्ति होने को यज्ञ कहते हैं । वस्तुत: एक से अधिक विजातीय पदार्थों एवं तत्त्वों के रासायनिक मिश्रण से जो नया भाव पैदा होता है वही यज्ञ का स्वरूप है।

वेद का केन्द्र बिन्दु यज्ञ है। मीमांसकों के अनुसार यज्ञ का लक्ष्य अपूर्व (नवीन पदार्थ) की उत्पत्ति है। अपूर्व की उत्पत्ति का आधार दो का मेल (मिथुन भाव) है-पदार्थ और ऊर्जा, ब्रह्म और माया, सूर्य और चन्द्रमा, पर्जन्य और सोम, पृथ्वी और वर्षा, अग्नि और सोम, योषा-वृषा। योषा-वृषा, नर-नारी के स्थूल शरीर के वाचक नहीं हैं अपितु उस तत्त्व के वाचक हैं जिनके संयोग के बिना अपूर्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

अग्नि-सोम के मिथुन भाव का आधार ‘योषा-वृषा’ का सिद्धान्त है। अग्नि-सोम की यज्ञात्मक भूमिका का आधार पांच स्तर का ही है। द्युलोक के अग्नि में परमेष्ठी के श्रद्धा तत्त्व की आहुति, पर्जन्य में सोम की, पृथ्वी पर वर्षा की, शरीर में अन्न की तथा स्त्री शरीर में शुक्र की आहुति का अर्थ यह है कि निर्माण जो भी हो, होता दो तत्त्वों के योग से ही है। ये तत्त्व विपरीत भाव के होते हैं। इसी को युगल सृष्टि कहते हैं।

अग्नि सत्य (केन्द्र-परिधियुक्त) है, सोम ऋत है। पंचपर्वा विश्व में स्वयंभू, सूर्य तथा पृथ्वी सत्यलोक हैं। परमेष्ठी और चन्द्रमा सोम लोक हैं। परमेष्ठी लोक स्वयंभू तथा सूर्य का आधार है, शक्ति है। चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी का आधार है। अग्नि को जब तक सोम उपलब्ध रहता है, वह प्रज्वलित रहता है। सोम-प्रवाह के ठहरते ही अग्नि भी सोम ही बन जाता है। अग्नि स्वयं भी अपने चरम पर पहुंचकर सोम बन जाता है। सोम भी चरम पर पहुंचकर अग्नि का रूप ले लेता है। दोनों यथार्थ में एक ही है। अन्तर इतना ही है कि सोम सदा अग्नि में आहूत होता रहता है। सोम ऋत है-केन्द्र और आकृतिविहीन है। अग्नि सत्य रूप है। सृष्टि का निर्माण सोम आधारित ही है, किन्तु स्वरूप आग्नेय है। सोम के जल जाने के बाद जो बचता है, वह अग्नि ही है।

दूसरी बात यह है कि सत्य सदा केन्द्र में ही रहता है। सोम ऋत होने से अग्नि को आवरित किए रहता है। सूर्य अग्नि रूप केन्द्र है। चारों ओर परमेष्ठी का सोम (श्रद्धा) है। यही सूर्य की शक्ति है। इसी का एक अन्य स्वरूप सूर्य तथा किरणें हैं। किरणें ही सूर्य के साम का निर्माण करती हैं। सूर्य के कार्य करती हैं। सूर्य स्वयं कुछ नहीं करता। नहीं करते हुए भी ‘कर्ता’ वही तो है। यह भारतीय दाम्पत्य भाव का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जाता है।

सूर्य-चन्द्रमा का भी अग्नि-सोम रूप दाम्पत्य भाव है। इन्हीं के मिथुन भाव से ‘सम्वत्सर’ का निर्माण होता है। सूर्य अग्निमय तथा चन्द्रमा सोममय है। ऋताग्नि और ऋतसोम ही इनका आधार है। ऋतसोम उत्तर से दक्षिण को तथा ऋत अग्नि दक्षिण से उत्तर (ऊपर) की ओर प्रवाहित रहता है। दोनों के योग से ही ऋतुएं बनती हैं। इसी को सम्वत्सर कहा जाता है। इसी अग्नि-सोम से प्रजा उत्पन्न होती है। सृष्टि में निर्माण-स्थिति एवं संहार की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। इस प्रक्रिया में कम से कम दो तत्त्व होने ही चाहिए। एक तीसरा तत्त्व इन दो को जोडऩे वाला होता है उस तत्त्व को ही अन्तरिक्ष कहा जाता है। यही मूल रूप से निर्माण क्षेत्र होता है। सृष्टि के पांचों पर्वों को सात लोकों में विभाजित माना जाता है। प्रत्येक पर्व के बीच में विद्यमान अन्तरिक्ष को क्रमश: भुव:, मह: तथा तप: लोक कहा जाता है। इनमें जैव सृष्टि के निर्माण का लोक मह:लोक कहा जाता है क्योंकि यही पर सृष्टि निर्माणात्मक यज्ञ का प्रारंभ होता है। कृष्ण का वचन भी मह:लोक की इसी प्रतिष्ठा को बताता है।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ गीता 14.3
हे अर्जुन! मेरी योनि महद् ब्रह्म है उसमें मैं गर्भ को स्थापित करता हूं। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
विज्ञान भी कहता है कि सृष्टि में दो तत्त्व मूल होते है-एक पदार्थ तथा दूसरा ऊर्जा यानी मैटर और एनर्जी। दोनों एक दूसरे में बदलते रहते हैं, किन्तु इनका ह्रास नहीं होता।

अग्नि, विकास धर्मा तथा सोम, संकोच धर्मा है। वृषा (पुरुष) सृष्टि में अग्नि तत्त्व तथा योषा (स्त्री) सृष्टि में सोम तत्त्व प्रधान रहता है। अग्नि अन्नाद (भोक्ता) है तथा सोम अन्न (भोग्य) है। अत: सोम ही अग्नि की आत्म-प्रतिष्ठा है। सोम के बिना अग्नि जीवित नहीं रह सकता। न अग्नि के बिना सोम सत्यभाव में बदल सकता है। सोम सदा ऋत भाव में ही आहूत होता है। अग्नि तत्त्व ही पुरुष है। अत: आग्नेय शरीर, शुक्र में आग्नेय प्राण तथा दक्षिण भाग की आग्नेयता से पुरुषत्व बनता है। शक्तिघन-सोम प्रधान योषा तत्त्व स्त्रीवर्ग का आलम्बन बनता है।

योषा-वृषा की क्रमश: स्त्री-भ्रूण एवं पुंभ्रूण संज्ञा है। पुंभ्रूण का पोषक शुक्र है। अत: इसकी वृद्धि एवं बल आवश्यक है। यही स्थिति शोणित की है। शोणित की वृद्धि से स्त्री भ्रूण बलवान् होता है। ‘पुंभ्रूण पुरुष है। आग्नेय है। इसकी समृद्धि एक मात्र शुक्र समृद्धि पर आधारित है। शुक्र सौम्य है, स्त्रैण है। अत: सौम्या स्त्री की समृद्धि, अभ्युत्थान ही पुरुष की समृद्धि एवं अभ्युदय का कारण है। स्त्री-भ्रूण सौम्या है, जो समृद्धि के लिए शोणित (अग्नि-पुरुष) पर आधारित है। यही मूल में दाम्पत्य भाव का रहस्य है। यही अद्र्धनारीश्वर का वैभव है।’

योषा-वृषा के मिथुन भाव में एक संघर्ष चलता है। जो प्रबल होता है, वह दूसरे को अपने नियन्त्रण में करके, अपने रूप में सम्मिलित कर लेना चाहता है। यदि पुंभ्रूण कमजोर है, स्त्री-भू्रण बलवान है, पुंभ्रूण को आत्मसात कर लेता है। सौम्या प्राण की प्रधानता से कन्या सन्तति होती है। यदि पुंभू्रण बलवान हो तो पुरुष प्रजा उत्पन्न होती है। यदि दोनों ही प्राण समभाग है, तो नपुंसक सन्तान होती है। उसमें स्त्री-पुरुष दोनों के ही चिह्न रहते हैं। मनुस्मृति में कहा है कि पुरुष का वीर्य अधिक होने पर पुत्र और स्त्री के अधिक में कन्या होती है। और दोनों के समान होने पर नपुंसक संतान या जोड़ा पैदा होता है। वीर्य क्षीण होने से सन्तान नहीं होती।

‘पुमान् पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रिया:।
समे पुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्यय: ॥’ (3/49)
सिद्धान्त रूप से पुरुष का स्त्री अंश तथा स्त्री का पुरुष अंश अपूर्ण होता है। अत: कोई अकेले सृष्टि निर्माण में सक्षम नहीं है। दाम्पत्य भाव दोनों की पूर्णता का मार्ग है।
अग्नि बलवान तो है, किन्तु सोम के आधार पर। योषा दृष्टि से स्त्री तथा अन्त:रूप (शोणित) से पुरुष और शुक्र दृष्टि से पुरुष सौम्य है। शरीर रचना की दृष्टि से पुरुष अग्नि प्रधान और स्त्री सौम्या है। अर्थात् दोनों शरीर पुरुष भी हैं और स्त्री भी हैं। शरीर से पुरुष, पुरुष है, सप्तम धातु शुक्र की दृष्टि से स्त्री है, शुक्र में निहित वृषा प्राण से पुन: पुरुष है। इसी प्रकार स्त्री भी शरीर से स्त्री, शोणित से पुरुष भावात्मक तथा योषा प्राणों से पुन: स्त्री ही है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सन्तान प्राप्ति का कारण स्त्री-पुरुष का मिथुन कर्म मात्र ही नहीं है बल्कि योषा-वृषा का सम्बन्ध मूल है। यदि योषा-वृषा का मेल न हो, या दोनों में से एक प्राण का हनन हो जाए तो मात्र शरीर सम्बन्ध से सन्तान पैदा नहीं हो सकती। योषा-वृषा के मेल से, बिना शरीर सम्बन्ध के भी सन्तान उत्पन्न हो सकती है। टेस्ट ट्यूब बेबी इसका उदाहरण है।
क्रमश:

Home / Prime / Opinion / शरीर ही ब्रह्माण्ड : संतति यज्ञ से ब्रह्म विवर्त

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो