भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक भाषाओं के द्वारा यह काम सदियों से होता आ रहा है। यदि हिन्दी क्षेत्र की बात करें तो सूर, कबीर, तुलसी, जायसी, मीरा, रहीम, रसखान आदि अनेक लोक भाषायी प्रतिभाओं ने इन लोक भाषाओं में कालजयी काव्य रचनाएं की हैं। अत: इनकी शक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए। चूंकि भाषाएं प्रयोग के अधीन होती हैं उनमें कई तरह से परिवर्तन भी आता है। भाषाओं का सामथ्र्य उनके प्रयोग की व्यापकता पर निर्भर करता है जो आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य पर टिका होता है। चूंकि लोक-हित ही लोकतंत्र का चरम लक्ष्य होता है, इसलिए लोक-भाषा का उपयोग कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। वैकल्पिक पहेली तो नहीं ही होनी चाहिए। भारत में लोकतंत्र तो आया, पर उसकी प्रभावी भाषा यहां की लोक-भाषा या देशज भाषा नहीं बन सकी।
भारत से विदा होते समय अंग्रेज जो व्यवस्था छोड़ कर गए उसमें बहुत से भारतीय प्रशिक्षित और दीक्षित ही नहीं थे, बल्कि उनका मन भी अंग्रेजवत बदल चुका था। ऐसे में लोकतंत्र के प्रशासन के तंत्र-मंत्र की भाषा, रीति, नीति सब कुछ यथावत अक्षुण्ण रखा गया। कहने को लोक-भाषा हिन्दी को पदेन ‘राजभाषा’ तो मान लिया गया परन्तु प्रशासन के लिए नई नवेली होने के कारण उसे पंद्रह साल की परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रख दिया गया। अंग्रेजी, जो ‘सह राज-भाषा’ कही गई, पूर्ववत राज भाषा के रूप में कार्य करती रही।
गुलामों पर आधिपत्य के लिए स्थापित की गई अंग्रेजी स्वतंत्रता मिलने पर भारतीय शासकों द्वारा भी प्रयुक्त रही और हिन्दी अनुवाद की भाषा बन गई। राजभाषा विभाग खोल दिया गया जो यह सुनिश्चित करता है कि अनुवाद हो रहा है कि नहीं। साथ ही हिन्दी के सरकारी प्रोत्साहन के अनेक उपाय शुरू हुए। वैसे तो संविधान में संघ के कत्र्तव्य के रूप में हिन्दी-विकास चिह्नित किया गया, पर स्थिति लगभग पहले जैसी ही बनी रही। पंद्रह साल की अवधि पूरी होने पर राजनीति की दुरभिसंधि आड़े आई और अंग्रेजी को अनंत काल की छूट दे दी गई।
पचहत्तर साल पहले जब अंग्रेजी को भारत की (कार्यकारी!) राज-भाषा बनाया गया तो भारत में 0.1त्न लोग अंग्रेजी जानते थे। आज ये 14त्न से कुछ ज्यादा हो गए हैं। प्रतिष्ठा और नौकरी पाने, ज्ञान-विज्ञान में प्रगति तथा नीति-निर्माण आदि में हम आज भी अंग्रेजी पर निर्भर हैं। न्याय, प्रशासन, स्वास्थ्य और उच्च शिक्षा में लोक-भाषा अब भी अनसुनी है। इसका दुष्परिणाम सृजनात्मकता के अभाव, अवसर की उपलब्धता में भेद-भाव और प्रतिभाओं को कुंठित करने वाला रहा है। लोक को वाणी दे कर ही लोकतंत्र की सामर्थ्य बढ़ सकेगी।