अर्जुन लड़ नहीं रहा होता, कृष्ण उसे लड़वा रहा होता है। इसलिए उसे भी कृष्ण के समान एक सारथि चाहिए, जो उसका गुरु भी हो सके, उसका सेनापति भी हो सके और उसका नीतिनिर्धारक भी हो सके। कृष्ण क्या योद्धा नहीं है, किंतु वह अपने शस्त्र त्याग कर अर्जुन का सारथि बना बैठा है। कृष्ण न कहीं का राजा है, न सम्राट्! शल्य ने कहा, उसकी क्या मर्यादा है? उसे क्या अंतर पड़ता है कि वह युद्ध में सैनिक है, सेनापति है अथवा सारथि है।
शल्य का हृदय सागर जैसे खौल रहा था। उसने केवल कृष्ण की मर्यादा की बात कही थी; किंतु उसके मन में और भी बहुत कुछ था। वह कहना चाहता था कि कृष्ण जब हस्तिनापुर आया था, तब भी उसने युवराज दुर्योधन का निमंत्रण ठुकरा कर विदुर के घर भोजन किया था। शल्य ने आज तक ऐसी मूर्खता नहीं की। वह तो अपने भागिनेयों को त्याग कर दुर्योधन के पक्ष से लडऩे चला आया था क्योंकि वह स्वयं को राजाओं और सम्राटों के समाज का अंग मानता था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अनेक लोगों के पास अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व थे, किंतु कृष्ण अतिथियों के जूठे पत्तल उठा रहा था।
वह ऋषियों के चरण धो रहा था। गायों और अश्वों की सेवा करने वाले उस कृष्ण ने यदि अर्जुन का सारथ्य स्वीकार कर भी लिया तो क्या हो गया? शल्य इस प्रकार का तुच्छ कर्म करने कुरुक्षेत्र नहीं आया है। कह तो आप ठीक रहे हैं मातुल! कृष्ण की कोई मर्यादा नहीं है। दुर्योधन बोला, किंतु मैं तो उसके सामथ्र्य की चर्चा कर रहा हूं। हां! सामथ्र्य है उसमें।
शल्य ने उसे आगे बोलने ही नहीं दिया, उसके पास नारायणी सेना थी, जो उसने अपने पक्ष के विरुद्ध लडऩे के लिए तुमको दे दी। नरेंद्र कोहली के प्रसिद्ध उपन्यास से