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निर्बन्ध : अपराध

कृष्ण ने उसे डांटा, कभी भाई का वध करने की बात सोचते हो और कभी आत्महत्या ही कर लेना चाहते हो। तुम भी बहुत उद्विग्न लग रहे हो मुझे।

Feb 02, 2017 / 03:45 pm

कृष्ण न रोकते तो जाने वह क्या अनर्थ कर बैठता। उसकी इच्छा हुई कि वह उसी असि से अपना मस्तक काट दे।… क्या सोच रहे हो? कृष्ण ने पूछा। सोचता हूं कि मैंने कितना बड़ा मानसिक अपराध कर डाला है। धर्मराज जैसे अपने भाई के वध की बात सोच डाली। इसका प्रायश्चित्त कैसे होगा? ऐसा जघन्य अपराध करने के बाद मुझे जीवित रहने का क्या अधिकार है। 
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मूर्ख हो तुम। मोहाक्रांत हो रहे हो। कृष्ण ने उसे डांटा, कभी भाई का वध करने की बात सोचते हो और कभी आत्महत्या ही कर लेना चाहते हो। तुम भी बहुत उद्विग्न लग रहे हो मुझे। अच्छा है कि धर्मराज से अनुमति लो और समरभूमि में लौटो। नहीं तो यहां कोई न कोई अनर्थ होकर ही रहेगा।
अर्जुन ने अपने अवसाद को संयत कर युधिष्ठिर की ओर देखा: युधिष्ठिर के चेहरे पर अब कहीं आक्रोश नहीं था। वे पहले की तुलना में पर्याप्त शांत लग रहे थे। अर्जुन और कृष्ण ने आगे बढ़कर उनके चरण छुए, हमें आशीर्वाद दीजिए कि हम आपका मनोवांछित कर सकें। 
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युधिष्ठिर की आंखों में अश्रु थे, शायद मैं राजा होने के योग्य ही नहीं हूं। मैं रजोगुण के वेग को संभाल नहीं सकता हूं। भीमसेन मुझसे कहीं अच्छे राजा प्रमाणित होंगे। मैं वनवास के लिए चला जाऊं तो तुम लोग सुखी हो सकोगे। कृष्ण ने पुन: झुककर धर्मराज के चरण छुए, हम आपकी शरण में हैं। इस आचरण के लिए क्षमायाचना करते हैं। 

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